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जेनतत्त्वमीमांसा जीवोंमें कपिनेका तथा अन्यमें करणता आदिका व्यवहार किया जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रने इस तथ्यको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकामें घटोत्पत्तिके प्रति कुम्भकारके योग और विकल्पको घट निर्माणकी क्रिया न कहकर उसे मिट्टोकी उस क्रियाके प्रति अनुकूल कहा है जब कि प्रत्येक वस्तु स्वभावसे किसोके अनुकूल और प्रतिकूल होती नही। अनुकूल या प्रतिकूल कहना यह मात्र व्यवहार है । तात्पर्य यह हुआ कि मिट्टी स्वयं कर्ता होकर घटकी उत्पत्ति रूप क्रिया करती है और कुम्भकारका योग और विकल्प रूप व्यापार व्यवहारसे उसके अनुकूल होता है। अतः यही मानना उचित है कि कार्य की उत्पत्ति होती तो है अपने निश्चय उपादानके स्वसमयमें प्राप्त होनेपर स्वयंकृत ही, पर उसमे जो सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थ अन्वय व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिवश स्वकालके प्राप्त होने पर व्यवहार हेतु होते हैं उनकी वह व्यवहार हेतुता धर्मादि द्रव्योंके समान ही जाननी चाहिये । वे अपनी-अपनी उक्त विशेषता द्वारा दूसरे निष्क्रिय धर्मादि द्रव्योंके समान ही व्यवहार हेतु होते है यह तथ्य पूर्वोक्त कथनसे तो स्पष्ट है ही। निष्क्रिय पदार्थ दूसरोके क्रिया लक्षण अथवा परिणाम लक्षण कार्यो में यथासम्भव किस प्रकार व्यवहार हेतु होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते समय जो सर्वार्थसिद्धिका उद्धरण दे आये हैं उससे भी स्पष्ट है। उक्त उल्लेखमें जहाँ धर्मादि द्रव्योंकी व्यवहार हेतुताको क्रियावान् चक्षु इन्द्रियको व्यवहार हेतुताके समान बतलाया गया है वहाँ उससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थोंकी व्यवहार हेतूता धर्मादि द्रव्योंके समान ही होती है। और इसीलिए आचार्य पूज्यपादने जिस प्रकार धर्म द्रव्यको अन्यकी गतिमें व्यवहार हेतु कहा है, उसी प्रकार अन्य सब व्यवहार हेतु होते है इस तथ्यको इष्टोपदेशमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि कथन द्वारा अन्य सब पदार्थोंकी व्यवहार हेतुताको निष्क्रिय धर्म द्रव्यको व्यवहार हेतुताके समान स्वीकार किया है।
निश्चय उपादान और व्यवहार निमित्त इन दोनोंका प्रति समय किस प्रकार योग मिलता है इसका समर्थन स्वामी कार्तिकेयकी द्वादशानुपक्षासे भले प्रकार हो जाता है । यथा
णिय-णियपरिणामाण णिय-णियदव्य पि कारणं होदि । अण्ण बाहिरदध्वं णिमित्तमतं वियाग्रह ॥२१७॥