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जैनतत्त्वमीमांसा
आचार्य अमृतचन्द्रके इस वचनसे भी इसी तथ्यका समर्थन होता हैततो नान्यत्वत्सं निर्वाणस्येत्यवधार्यते । प्रवचनसार गा० ८२ ।
इसलिए निर्वाणका एकमात्र रत्नत्रयको छोड़कर कोई दूसरा मार्ग नहीं है ।
शंका- चौथे आदि गुणस्थानके सम्यग्दर्शनादिको तो फिर मोक्षमार्ग क्यों कहा जाता है ?
समाधान - सद्भूत व्यवहारनयसे कहा जाता है, क्योंकि निश्चय उपादान उसीकी संज्ञा है जिसके बाद उसीके सदृश कार्य हो ।
इसी तथ्यको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए यह वचन दृष्टव्य हैन हि द्वयादिसिद्धक्षण सहायोगिकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य कार्यकारणभावो विचारयितुमुपक्रान्तो येन तत्र तस्यासामर्थ्य प्रसज्यते । किं तहि ? प्रथम सिद्धक्षणेन सह तत्र च तत्समर्थमेवेत्य सच्चोद्यमेतत् । कथमन्यथाग्नि प्रथमधूमक्षणमुपजनयन्नपि तत्र समर्थ स्यात्, धूमक्षणजनितद्वितीयादिधूमक्षणोत्पादे तस्यासमर्थत्वेन प्रथमधूमक्षणोत्पादनेऽप्यसामर्थ्यप्रसक्ते । तथा च न किंचित् कस्यचित् समर्थ कारणम् । न चासमर्थात् कारणादुत्पत्तिरिति क्वेय वराकी तिष्ठेत् कार्य-कारणता । कालान्तरस्थायिनोऽग्ने स्वकारणादुत्पन्नो कालान्तरस्थायी स्कन्ध एक एबेनि स तस्य कारणं प्रतीयते, तथा व्यवहारात्, अन्यथा तदभावात् इति चेत् ? तहि सयोगिकेवलिरत्नत्रयमयोगिकेवलिचरमसमयपर्यन्तमेकमेव तदनन्तरभाविन सिद्धत्वपर्यायस्यानन्तरस्यैकस्य कारणमित्यायातम्, तच्च नानिष्टम्, व्यवहारनयावरोधतस्तथेष्टत्वात् । निश्चयनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्य मोक्षस्य कारणमयोगिचरमसमयवति रत्नत्रय - मिति निरवद्यमेतत्तत्त्वविदामाभासते । त० श्लोकवा० पृ० ७१ ।
द्वितीय आदि सिद्धक्षणोंके साथ अयोगिकेवलीके अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रयका कार्य-कारण भाव विचार करनेके लिए प्रस्तुत नही है, जिससे कि वहाँ उक्त सिद्धक्षणोंके साथ उक्त रत्नत्रयकी असामर्थ्यका प्रसंग प्राप्त होवे ।
शंका- तो क्या है ?
समाधान --- प्रथम सिद्धक्षणके साथ उक्त रत्नत्रयका कार्य-कारण भाव प्रस्तुत है और वहाँपर वह समर्थ ही है, इसलिए इस विषय में शंका करना व्यर्थ है । यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो अग्नि प्रथम धूमक्षणको उत्पन्न करती हुई भी उस कार्यके करनेमें समर्थ कैसे होवे, क्योंकि धूमक्षणोंसे उत्पन्न हुए द्वितीयादि धूमक्षणोंके उत्पादमें असमर्थ होने से प्रथम धूमक्षणकी उत्पत्तिमें भी असामर्थ्यका प्रसंग प्राप्त होता है और ऐसी