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जैनतत्त्व-भीमांसा है। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक कार्यका नियामक निश्चय उपादन ही होता है, व्यवहार हेतु नहीं।
(ख) प्रत्येक संसारी जीवके अवगाहरूप क्षेत्रमें अनन्तानन्त प्रमाण विस्रसोपचय रहता है। उनमेंसे किस समय कौन विस्रसोपचय जीवके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धको प्राप्त हो यह विभाग उक्त जीव तो नहीं करता है, क्योंकि इस विषयमें वह स्वयं अज्ञ है। जो केवली है वे भी जानते हुए भी यह विभाग नहीं करते कि इस समय इस विस्त्रसोपचयरूप पुद्गल स्कन्धको बाँधेगे, इसको नहीं। किन्तु जिस समय जो विनसोपचय बन्ध योग्य होता है वह जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोंमेंसे यथासम्भव किसी एक योगस्थानको निमित्त कर स्वयं ज्ञानावरणादि रूपसे परिणम कर एक क्षेत्रावगाह रूपसे बन्धको प्राप्त हो जाता है। यहाँ यह कथन प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धकी अपेक्षा किया गया है। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके विषयमें भी इसी प्रकार से जान लेना चाहिए।
(ग) दो पुद्गल परमाणुओंका श्लेष बन्ध तभी होता है जब एक पुद्गल परमाणुसे दूसरा पुद्गल परमाणु दो अधिक स्पर्श गुणवाला न हो । मात्र एक वालके लिये यह नियम लागू नही होता। इसी प्रकार तीन आदि अनन्त पुद्गल परमाणुके श्लेषबन्धके विषयमे भी जान लेना चाहिये । सो क्यो, विचार कीजिये।
(घ) एक क्षपित कर्माशिक जीव है और दूसरा गुणित कर्माशिक जीव है। दोनोने एक साथ श्रेणि आरोहण किया। समझो अपूर्वकरण मे दोनोका विशुद्धि रूप परिणाम सहश है। फिर भी क्षपित कर्माशिकके स्थितिकाण्डका प्रमाण गुणित कर्माशिकके स्थितिकाण्डकके प्रमाणसे अल्प प्रमाणवाला होता है । सो क्यों, विचार कीजिये ।
(ङ) जीवकाण्ड लेश्या मार्गणामें किस लेश्याके किस अंशसे मरा हुआ जीव स्वर्ग या नरकमेंसे किस स्वर्ग या किस नरकमें जन्म लेता है यह स्पष्ट बतलाया गया है। आयु कर्मके बलसे उसका अन्यत्र जन्म क्यो नही होता । सो क्यों, विचार कीजिये।
(च) एक जीव अपनी परिणाम विशुद्धिके बलको निमित्तकर अप्रशस्त कर्मका अपकर्षण करता है। प्रश्न यह है कि यह जीव विवक्षित निषेकों के विवक्षित कर्म परमाणुओंका ही उस समय अपकर्षण क्यों कर सकता है, उनके सिवा उस समय अन्य कर्म परमाणुओंका अपकर्षण क्यों नहीं कर पाता? विचार कीजिये।