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निश्चयउपादान-मीमांसा कार्यों के साथ जो कार्य-कारणभाव कहा गया है वह असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है। तब यह इस कार्यका कारण है या इस कारण का यह कार्य है ऐसा असद्भूत व्यबहार तो बन जाता है। पर निश्चयनय न तो इस व्यवहारको स्वीकार करता है और न ही सद्भूत व्यवहार को ही स्वीकार करता है। इतना ही नहीं, प्रत्युत अपना निषेधकरूप स्वभाव होनेके कारण वह ऐसे व्यवहारका निषेध ही करता है । 'एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयण ( समयसार गाया २७२) इस प्रकार निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय निषेध करने योग्य जानो यह वचन इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कहा गया है।
इस प्रकार प्रागभाव और उपादान कारण इनमें एक वाक्यता कैसे है और इस आधार पर निश्चय उपादान में विवक्षित कार्यकी नियामकता कैसे बनती है इसका सम्यक् विचार किया। ___अब आगे प्रकृत विषय उपादान-उपादेयभावको और तदनुषंगी व्यवहार निमित्त-नैमित्तिकभावको ध्यानमें रखकर 'दृष्टिका माहात्म्य' इस प्रकरणके अन्तर्गत कैसी दृष्टि बनानेसे जीवका संसार चालू रहता है और बढता है तथा कैसी दृष्टि बनानेसे जीव मोक्षमार्गी बन कर मुक्तिका पात्र होता है इस विषय पर सक्षेपमें कहायोह करेंगे। ५ दृष्टिका माहात्म्य
दृष्टियाँ दो प्रकारकी है-एक व्यवहार दृष्टि और दूसरी निश्चय दृष्टि । अनेकान्त स्वरूप वस्तुकी समग्रभावसे स्वीकार करने वाली प्रमाण दृष्टि सकलादेशी होनेसे प्रकृतमे उससे प्रयोजन नही है। समय सार गाथा २७२ में इन दोनों दृष्टियोका स्वरूप निर्देश तथा उनके फल का निर्देश इस प्रकार किया गया है
आत्माधितो निश्चयनय., पराश्रितो व्यवहारनय' । तत्रव निश्चयनयेन पराश्रित समस्तमध्यवमान बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षो प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्त्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं, चाय आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् । पराश्रितव्यवहारनयस्यकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाणत्वात् ।
आत्माश्रित (स्व. आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (परके आश्रित) व्यवहारनय है। वहाँ पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान । (परमें एकत्व बद्धिरूप या पर पदार्थों में उपादेय रूपसे इष्टानिष्ट बदि. रूप समस्त विकल्प) बन्धके कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उनका निषेध ।