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उभयनिमित्त-मीमांसा
१०७
ऐसा लिखकर वे जैन दर्शनसे कितने दूर जा रहे हैं या चले गए हैं इसका उन्हें रंचमात्र भी भय नहीं है ।
(१) उदाहरणार्थं 'य: परिणमति स कर्ता' का सीधा अर्थ है - 'जो कार्य रूप परिणमन करता है ।' किन्तु व्यवहारसे जो प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं, कार्योंका यथार्थं कर्तृत्व उनको प्राप्त हो जाय और बाह्य वस्तु जो प्रत्येक कार्यका व्यवहार कारण है उसका तद्भिन्न द्रव्यके कार्यके प्रति कार्यकारोपना सिद्ध हो जाय, इसलिए वे उक्त श्लोकांशका 'जिसमें परिणमन होता है' यह अर्थ करते है ।
(२) दूसरा उदाहरण समयसार गाथा १०७ का है। इसमें 'आत्मा पुद्गल द्रव्यको परिणमाता है आदि व्यवहारनयका वक्तव्य है' यह कहा गया है । उसकी आत्मख्याति टीकामें आ० अमृतचन्द्र देवने ऐसे उपयोग परिणामको विकल्प बतलाकर इस विकल्पको उपचरित ही कहा है ।
यथा----
यत्तु व्याप्य-व्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयत्युत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोष - चारः ।। १०७ ।।
और व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेपर भी प्राप्य, विकार्य तथा निर्वर्त्यरूप जो पुद्गल द्रव्यस्वरूप कर्म है उसे आत्मा ग्रहण करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है इस प्रकारका जो विकल्प होता है वह वास्तवमें उपचार है |
किन्तु व्यवहारभासी व्यक्ति बाह्य हेतुओंकी कार्यकारीपना सिद्ध करने के अभिप्रायसे उक्त सूत्रगाथाका यह अर्थ करते है कि आत्मा पुद्गलद्रव्यका उपादान रूपसे परिणमन करनेवाला नहीं होता आदि । यह उन महाशयोंका कहना है । किन्तु यह कैसे ठीक नहीं है इसके लिये आगे कथन पर दृष्टिपात कीजिये -
अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं ।
अच्छंति कम्मभाव अणोणागाहमबगाढा || ६५ ॥ | पं० काय | आत्मा स्वभाव (मोहादि) करता है और जीवके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ प्राप्त हुए पुद्गल स्वभावसे कर्मभावको प्राप्त होते है || ६५||
इस गाथा द्वारा पुद्गलकार्य जीव द्वारा किये बिना ही जीव और पुद्गल अपना-अपना कार्य स्वयं कैसे करते हैं यह स्पष्ट किया गया है । इस पर पुद्गल कर्मरूप अपने कार्यको जीवकी सहायताके बिना कैसे करता है यह शंका होने पर आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
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