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निश्चयउयादान-मीमांसा
१७ परिणत आत्मा ही है। शुभोपयोगको जो मोक्षका परम्परा कारण कहा जाता है सो एक तो सातवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान सक शुभोपयोग होता ही नहीं। इससे पूर्वके चौथे आदि तीन गुणस्थानोंमें बहुलतासे शुभोपयोग अवश्य होता है और वह निश्चय रत्नत्रयका सहचर होनेके कारण व्यवहारसे अनुकूल माना गया है। तथा स्वरूप परिणमन पूर्वक जो निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धि प्राप्त हुई वह शुभोपयोगके कालमें यथावत् बनी रहती है, उसकी हानि नहीं होती, इसीलिये ही शुभोपयोगको व्यवहारसे परम्परा मोक्षका कारण कहा है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा मोक्षका साक्षात् कारण, सविकल्प भूमिकामें कहो या प्राक् पदवीमे कहो व्यवहारसे उसके अनुकूल शुभोपयोग, इस प्रकार शुभोपयोगको व्यवहारसे मोक्षका परम्परा कारण स्वीकार किया गया है । इसको पुष्टि इस प्रमाणसे हो जाती है
बाह्यपचेन्द्रियविषयभूत वस्तुनि सति अज्ञानभावात् रागाद्यध्यवसानं भवति तस्मादध्यवसानाद् बन्धो भवतीति पारपर्येण वस्तु बन्धकारणं भवति, न च साक्षात् । परमात्मप्रकाश पृ० ३५४ ।
पच्चेन्द्रियोकी विषयभूत बाह्य वस्तुके होनेपर अज्ञान भावसे रागादि अध्यवसान होता है, इसलिये अध्यवसानसे बन्ध होता है। इस प्रकार बाह्य वस्तु व्यवहारसे परम्परा बन्धका कारण है न साक्षात । ___ यद्यपि शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार हेतु कहा है किन्तु मोक्षप्राप्तिके समय या उससे अव्यवहित पूर्व समयमे शुभोपयोग जब होता ही नही तब इस दृष्टिसे तो वह मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण तो हो नही सकता। किन्तु जो निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् कारण है वह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकका व्यवहारसे एक ही है ऐसा स्वीकार करने पर ही शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना बनता है। __ शंका-जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबुद्धिपूर्वक राग होता है उसे भी मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना चाहिये ? ।
समाधान-जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबधिपूर्वक राग होता है वह शुभोपयोगकी जातिका ही होता है, इसलिये उसे भी परम्परा व्यवहारसे मोक्षका कारण कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है।
शंका--कतिपय शास्त्रोंमें यह भी उल्लेख मिलता है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव व्रतादिका आचरण कर स्वर्ग जाता है और बहाँसे