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उभयनिमित्त-भीमांसा
१०३ स्वीकार किया गया है। यह बाह्यकारण और उपादान दोनोंके. अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । यया___ द्रव्यस्य निमित्तवशात् उत्पञ्चमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यबसोयते। त० वा., अ० ५ सू० २२।
द्रव्यके दोनों बाह्य और आभ्यन्तर (उपादान) निमित्तोंके वशसे उत्पन्न होनेवाले परिस्पन्दका नाम क्रिया है ऐसा निश्चित होता है।
क्रियाके इस लक्षणमें व्यवहार हेतुके साथ निश्चय उपादानके लिए भी निमित्त शब्द व्यवहृत हुआ है।
कहीं इन दोनोंके लिए बाह्म और आभ्यन्तर हेतु संज्ञा भी व्यवहृत हुई है (त० वा०, अ० २ सू०८), तथा कहीं बाह्य और इतर उपाधि संज्ञा भी प्रयुक्त हुई है (स्व० स्तो० श्लो० ५९)।
इन उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लौकिक या परमार्थ स्वरूप जो भी कार्य होता है उसमें व्यवहार हेतु और निश्चय हेतुका सन्निधान अवश्य होता है। यतः निश्चय हेतु (निश्चय उपादान) कार्य द्रव्यका ही एक अव्यवहित पूर्व रूप है, इसलिये वह नियमसे कार्यका नियामक स्वीकार किया गया है। किन्तु व्यवहार हेतु कार्यका अविनाभावी है, इसलिये मात्र व्यवहारसे उसे कार्यका नियामक कहा जा सकता है। फिर भी वह निश्चय हेतुका स्थान नहीं ले सकता । इन दोनोंमें विन्ध्य-हिमगिरिके समान महान अन्तर है-'अन्तर महदन्तरम् ।' क्योंकि निश्चय हेतु कार्य-द्रव्यके स्वरूपमें अन्तनिहित है और व्यवहार हेतु बाह्य वस्तु है, इसलिये इन दोनोंमें महान् अन्तर होना स्वाभाविक है, निश्चय हेतु कार्य द्रव्यका पूर्व रूप होनेसे सद्भूत है और व्यवहार हेतु कार्य-द्रव्यसे भिन्न होनेके कारण उसमें असद्भूत है । ३. शंका-समाधान
शंका-जब उक्त दोनों ही हेतु कार्यके प्रति नैगमनयसे स्वीकार किये गये हैं तब दोनोंका दर्जा एक समान मानने में क्या आपत्ति है ?
समाधान-आगममें सद्भूत और असद्भुत व्यवहारके भेदसे नैगमनय दो प्रकारका स्वीकार किया गया है। यतः बाह्य वस्तुमें निमित्तता असद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार की गई है और निश्चय उपादानमें कार्यके प्रति हेतुता सद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार की गई है, अतः इन दोनोंको एक समान दर्जा नहीं दिया जा सकता है । मात्र हेतुता सामान्य की दृष्टिसे दोनों ही समान है। आशय यह है कि यह इसका कार्य है