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उभयनिमित्त-मीमांसा
१०१ नहीं है, इसलिये उसके राग और दोषका सद्भाव अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार किया गया है। अतः राग-द्वेषके कारण जो कर्मबन्ध होता है स्वभाव सन्मुख होनेसे ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक वह नहीं होता। अबुद्धिपूर्वक होनेवाले राग-द्वेष और उदयके साथ ही उसका अविनाभाव सम्बन्ध है। __ और यह ठीक भी है, क्योंकि संसारके जितने भी कार्य हैं उनमे ज्ञानीका स्वामित्व न रहनेसे उन सबको उसके अबुद्धिपूर्वक स्वीकार करना ही न्यायोचित है। वह दृष्टिमुक्त होनेसे मुक्त ही है, क्योंकि उसने पर्यायमें परमात्मा बननेके द्वारमें प्रवेश कर लिया है।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानीके संसार के सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते ही नहीं, इसलिये परमागमने अज्ञानीके योग और विकल्पके साथ ही उनकी व्याप्ति स्वोकार की है। यतः ऐसे ही कार्योंके साथ अज्ञानीके बुद्धि (अभिप्राय) पूर्वक कर्तृत्व घटित होता है, अतः आचार्योने इन्हीं कार्योको प्रायोगिक स्वीकार किया है। इनके सिवाय अन्य जितने भी कार्य होते हैं वे सब विस्रसा ही स्वीकार किये गये हैं।
शंका-यहाँ पर ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक रागादि भावोंका अभाव बतलाया है सो यह बात हमारे समझमे नहीं आती, क्योंकि ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ रहने में आत्माकी किसी प्रकारकी क्षतिको आगम स्वीकार नहीं करता। हम देखते है कि सविकल्प अवस्थामें ज्ञानीके गृहस्थ अवस्थाके सभी कार्य तथा भावलिगी सन्तके भी २८ मूलगुणोंका पालन, आहारादिका ग्रहण, तत्त्वोपदेश, शिष्योंका ग्रहण-विसर्जन, गुरुसे अपने द्वारा किये गये दोषोंको निन्दा गर्दापूर्वक प्रायश्चित्त लेना आदि सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं। कर्ता-कर्म अधिकारमें भी जिस द्रव्य का जब जो परिणाम होता है उस समय उस द्रव्यका कर्ता उस द्रव्यको ही स्वीकार किया गया है। यत राग-द्वेषादि भाव जीवोंकी ही पर्याय है। जीव ही स्वयं उसरूप परिणमता है, इसलिये प्रकृतमें ऐसे जीवको एक तो निरास्रव मानना उचित नही है । दूसरे ज्ञानीके भी श्रावक और भावलिंगो साधुके जितने भी कर्तव्य-कर्म कहे गये हैं उन्हे अबुद्धिपूर्वक मानना भी उचित नहीं है। चरणानुयोगकी रचना भी श्रावक और मुनिकी प्रवृत्ति कैसी हो इसी अभिप्रायसे हुई है। वह जिनवाणी है, इसलिये यही मानना उचित है कि ज्ञानी भी जब सविकल्प अवस्थामें वरतता है तब शुभाचारको श्रावक और मुनिके