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जैनतत्व-मीमांसा नोकर्म अर्थात् ईषत् कर्म । सवाल यह है कि शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि नोकर्मके दो भेद हैं, एक तो औदारिक आदि पाँच शरोर और दूसरे उनके अतिरिक्त लोकवर्ती समस्त पदार्थ । इनमेंसे तो औदारिक आदि पाँच शरीरोंको नोकर्म तो इसलिये कहा गया है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोके उदयसे जो-जो अज्ञान आदिक कार्य होते हैं उनमें इनकी निमित्तता अनियत है, नियमरूप निमित्तता नहीं। दूसरे ये अज्ञानादिके समान जीवोंके वैभाविक भाव नहीं है। तीसरे धातिया कर्मोंका क्षय हो जाने पर इन औदारिक आदि शरीरों में अज्ञानादि भावोंकी उत्पत्तितामें व्यवहारसे निमितत्ता भी नही रहती। इसीलिये आगममें इन्हें नोकर्म समहमें सम्मिलित किया गया है। अब रहे अन्य पदार्थ सो वे भी स्वरूपसे निमित्त तो नही हैं, व्यवहारसे जब उनका राग, द्वेष और मोह मूलक जीवकार्योंके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बनता है तभी उनमें इस सम्बन्धको देखकर नोकर्म व्यवहार होता है, सर्वदा नही
शंका-घटादि कार्य तो परमार्थसे जीवकार्य नही है ?
समाधान-घटादि कार्योंके होनेमे अज्ञानी जीवके योग और 'मै कर्ता' इस प्रकार के विकल्पोंमें निमित्तताका व्यवहार होनेसे व्यवहारसे वे भी जीव-कार्य कहलाते है। अतः अज्ञानादि घटादि कार्योंमें अन्य पदार्थोके समान व्यवहार हेतु होनेसे आगममें इन्हे भी नोकर्म माना गया है ।
शंका-उपयोग स्वरूप ज्ञानके साथ भी तो ऐसा व्यवहार बन जाता है कि घट-पटादि पदार्थोके कारण मुझे घट ज्ञान, पटज्ञान आदि हुआ। धर्मादिक द्रव्योंके कारण मुझे धर्मादिक द्रव्योका ज्ञान होता है ? अतः इन घट-पटाटि और धर्मादिक द्रव्योको भी ज्ञानोत्पत्तिका व्यवहार हेतु स्वीकार कर उन्हे नोकर्म कहना चाहिये ।
समाधान-घट-पटादि और धर्मादिक द्रव्योके साथ ज्ञानका व्यवहार से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो है। ज्ञानोत्पत्तिके व्यवहार साधन रूपसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नही है । परीक्षामुखमें कहा भी हैनार्थालोको कारणाम्, परिच्छेहत्वात् तमोवत् ।
अर्थ और आलोक ज्ञानोत्पत्तिके (व्यवहार) कारण नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञेय है, अन्धकारके समान ।
इस प्रकार ज्ञानावरणादिको कर्म और शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया इसकी सिद्धि हो जाने पर इनके साथ संसार अवस्थामें जीव