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जैनतत्त्व-मीमांसा रहती आई है वह पूर्वोक्त नियत कार्यका व्यवहार उपादान कहलाता है । यह व्यवहार उपादान इसलिये कहलाता है, कारण कि उसमें उक्त नियत कार्य के प्रति ऋजुसूत्रनयसे कारणता नहीं बनती। यतः वह केवल द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा उपादान कहा गया है, इसलिये उसकी व्यवहार उपादान संज्ञा है ।
शंका-पूर्व में प्रागभावका लक्षण कहते समय मात्र नियत कार्यसे अव्यवहित पूर्व पर्यायको ही ऋजुसूत्रनयसे उपादान कहा गया है, इसलिये उस कथनको भी एकान्त क्यों न माना जाय ?
समाधान-उक्त कथन द्वारा द्रव्याथिकनयके विषयभूत द्रव्यकी अविवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा गया है, इसलिये कोई दोष नही है। यदि दोनों नयोकी विवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा जाय तो अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको प्रागभाव कहेगे । इस प्रकार समस्त कथन युक्ति युक्त बन जाता है ।
शंका-यदि ऐसा है तो व्यवहार हेतुके कथनके समय उसे कल्पना स्वरूप क्यों कहा जाता है। श्री जयधवला (पृ० २६३ ) में इस विषयक कथनको स्पष्ट करते हुए आचार्य वीरसेनने यह कहा है कि प्रागभाव का अभाव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सापेक्ष होता है ? यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव कल्पनाके विषय है तो फिर प्रागभावके अभावको द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव सापेक्ष नही कहना चाहिये था । क्या हमारी इस शंकाका आपके पास कोई समाधान है ?
समाधान-हमने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको कही भी काल्पनिक नही कहा है, वे इतने ही यथार्थ हैं जितना कि प्रकृत वस्तु स्वरूप। हमारा तो कहना यह है कि प्रत्येक कार्य में पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर काल प्रत्यासत्तिवश निमित्त कहना यह मात्र विकल्पका विषय है और इसलिये उपचरित है : आगम में जहाँ भी यह कहा गया है कि इसने यह कार्य किया, यह इसका प्रेरक है, इसने इसे परिणमाया है, इसने इसका उपकार किया है यह इसका सहायक है यह सब कथन असद्भूत व्यवहारनयका वक्तव्य है। इस नयका आशय भी यह है कि यह नय प्रयोजनवश अन्यके कार्य आदिको अन्यका कहता है।
यह तो सुनिश्चित है कि प्रत्येक वस्तु और उसके गुण-धर्म परमार्थसे पर निरपेक्ष होते हैं, स्वरूप पर सापेक्ष नहीं हुआ करता। वस्तुका नित्य