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जैनतत्त्वमीमांसा है, इसलिए इसमें मोक्षप्राप्तिकी कारणता नैगमनयसे स्वीकारकर यह मोक्षका कारण है ऐसा व्यवहार स्वीकार किया गया है। ३. कार्यका नियामक निश्चय उपादान हो
यहाँ तक हमने निश्चय उपादानका स्वरूप क्या है यह बतलाया। अब आगे इसका विचार करना है कि परमार्थसे कार्यका नियामक निश्चय उपादानको माना जाय या असद्भुत व्यवहारनयके विषयभूत व्यवहार हेतुको । साधारणत: यह शंका उन व्यवहार हेतुओंको लक्ष्य कर व्यवहारीजनोंके द्वारा उठाई गई है जिन्हें वे प्रेरक निमित्त कारण कहते है। आगममें कुछ ऐसे वचन भी मिलते हैं जिनसे इस शंकाको बल मिलता है। उदाहरणार्थ कर्मकाण्डमें कहा गया है
विसत्रेयण-रत्तक्खय-भय-सत्थग्गहण-सकिले सेहि ।
उस्साहाराणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ ।।५७।। विषजन्य वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश, उच्छ्वासनिरोध और आहारनिरोध से आयका क्षय हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि उक्त कारणोंका समागम होनेपर आयुके क्षयपूर्वक जो मरण होता है उसकी अकाल या कदलीघात मरण संज्ञा है ॥५७|| इसी बातका समर्थन परमात्मप्रकाशके इस दोहे से भी होता है
अप्पा पंगह अणुहरइ अप्पु ण जाड ण एइ ।
भवणत्तयह वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥१-६६।। आत्मा पंगुके समान है। आत्मा न जाता है और न आता है। तीनो लोकोंमे इस जीवको विधि ही ले जाता है और विधि ही ले आता हैं ॥१-६६॥
करणानुयोगमें कर्मकी जो उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा ये चार अवस्थाओंका उल्लेख आया है उससे भी उन्हे लगता है कि जिन कार्योंमे प्रेरक निमित्तोंकी मुख्यता देखी जाती है उनमें प्रेरक निमित्तोंको ही नियामक माना जाना चाहिये ।।
स्वय आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा १०० में कुम्भादि कार्योके प्रति कुम्भकारके विकल्प ज्ञान और हस्तादिकी क्रियाको उत्पादक कहा है तथा आचार्य अमृतचन्द्रदेवने इनको निमित्तकर्ता भी कहा है। इसी प्रकार गाथा २७८-७९ में उक्त दोनों आचार्योंने परद्रव्यको परिणमाने वाला कहा है । यही बात आचार्य गृद्धपिच्छने भी कही है। वे तत्त्वार्थ