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निश्चयउपादान-मीमांसा सूत्रमें पुद्गलबन्धके प्रसंगसे दो अधिक मुण (शक्त्यंश) वाले पुद्गलको दो हीन गुणवाले पुगलको परिणमानेवाला कहते हैं।
इन सब उद्धरणोंसे यही सिद्ध होता है कि जिन्हें वे प्रेरक निमित्त कहते हैं उन्हें ही, उनको निमित्तकर होनेवाले कार्योंका नियामक माना जाना चाहिये। इतना ही क्यों, आगममें जिन्हें उदासीन निमित्त कहा गया है उनके विषयमें भी उन व्यवहारीजनोंका कहना है कि उन्हें भी कार्योका नियामक मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखलाई देती। अन्यथा तत्त्वार्थसूत्रमें 'धर्मास्तिकायाभावात्' (१०-९) इस सत्रकी रचना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। सिद्ध जीव तो अपनी उपादान योग्यताके कारण लोकाकाशको उल्लंघन कर अलोकाकाशमें भी जा सकते थे, परन्तु लोकाकाशके ऊपर अलोकाकाशमें धर्मास्तिकाय न होनेसे उनका लोकाकाशके अन्त तक ही गमन होता है, क्योंकि जीवों
और पुद्गलोंकी गतिक्रियामें उदासीन निमित्तपनेको प्राप्त होनेवाले धर्मास्तिकायका लोकाकाशके बाहर सद्भाव नहीं पाया जाता।
यह व्यवहाराभासियोंका कथन है। यह ठीक है कि आगममे अनेक स्थलों पर सुनिश्चित व्यवहार हेतुओंके समर्थनमें ऐसे उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं जिनसे उन्हें यह आभास होता है कि उपादान तो मात्र वस्तुगत योग्यता है। किस समय किस प्रकारका कार्य हो यह सब व्यवहार हेतुओं पर निर्भर है। पञ्चास्तिकायमें भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी व्यवहारहेतुताके समर्थन में कहा गया है
तयोदि गतिपरिणाम तत्पूर्वस्थितिपरिणाम वा स्वयमनुभवतोर्बहिरगहेतू धर्माधौं न भवेता तदा तयोनिरर्गलगति-स्थितिपरिणामत्वात् अलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत । गा० ८७ समयव्याख्या टीका। ___ यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपरिणामपूर्वक स्थितिपरिणामको स्वयं अनुभव करनेवाले उन जीव-पुद्गलोंके बहिरंग हेतु धर्म और अधर्म द्रव्य न हों तो उन जीव और पुद्गलोकी निरर्गल गति और तत्पूर्वक स्थिति परिणाम होनेसे आलोकाकाशमे भी उनकी वृत्तिको कौन रोक सकता है ?
इसी आशयका कथन तत्त्वार्थवार्तिकके इस उद्धरणसे भी होता है
यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्ति प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ. बाह्यकुलालदण्ड-चक्र-सूत्रोदक-कालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षः घटपर्यायणाविर्भवति, नैको मृत्पिण्ड: कुलालादिबाह्यसाधनसन्निधानेन विना पटात्मनाविर्भवितुं समर्षः।