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बाहाकारणमीमांसा आरोपितकी जाती है, जो वास्तविक नहोकर मात्र अपंचरित होती है । और इसीलिये इसे उपचरित था अनुषचरित असद्भूत व्यवहार नयका विषय बसलाया गया है और इसीलिये आलाम-पद्धतिमें असदभूत व्यवहार नयका यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है
अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असदभूतव्यवहार एव उपचारः ।
किसी अन्य वस्तुमें प्रसिद्ध हुए धर्मका अन्य वस्तुमें समारोप करना असद्भूत व्यवहार है। तथा असद्भूत व्यवहारका ही दूसरा नाम उपचार है।
हम पहले असद्भूत व्यवहारनयको नैगम नयमें गर्भित कर आये हैं, क्योंकि नेगमनय संकल्पप्रधान नय होनेसे संकल्प द्वारा जो जिसमें नहीं है, सादृश्य सामान्यके आधार पर उसे भी उसमें स्वीकार कर लेता है। हमारे इस कथनकी पुष्टि जयधवला पृ० २७० के इस बचनसे भी होती है___ जं मणुस्मं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो तत्तो पुधभूदो संतो कथं कोहो ? होंत एसो दोमो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणो जइबसहारिएण जेणावलबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो ? कारणम्मि णिलीणकन्जभवगमादो।
शंका-जिस मनुष्यको अवम्बन कर क्रोध उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य उससे पृथक् होता हुआ क्रोध कैसे कहला सकता है ?
समाधान-यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयोंका अवलम्बन लिया होता तो यह दोष होता, किन्तु यतिवृषभ आचार्यने चूंकि यहाँपर नेगम नयका अवलम्बन लिया है, इसलिये यह कोई दोष नहीं है।
शंका-नैगमनयका अवलम्बन लेनेपर दोष कैसे नहीं है ?
समाधान-क्योंकि नैगमनयकी अपेक्षा कारणमें कार्यका सद्भावस्वीकार किया गया है, इसलिये दोष नहीं है ।
इसी तथ्यका समर्थन धवला पु० १२ पृ० २८० के इस वचनसे भी होता है
सम्बस्स कज्जकलाबस्स कारणादो अभेदो ससादीहितो ति गए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्ण, कज्जादो कारणं पि।