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बाह्य कारण मीमांसा होता, अतः परमार्थसे अन्य अन्यको परिणमाता है यह त्रिकाल में नहीं। बन सकता। ऐसा न्याय भी है कि जो शक्ति जिसमें नहीं हो उसे दूसरा त्रिकालमें पैदा करने में समर्थ नहीं है । समयसार गा० १०३ टीका। । ___ यह वस्तु स्थिति है, इसीलिये समग्र जिनागम दृढ़ताके साथ यह स्वीकार करता है कि परमार्थसे दो द्रव्यों और उनके गुण-पर्यायोंमें परमार्थसे किसी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं है, चाहे वह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हो या ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध आदि कोई भी सम्बन्ध क्यों न हो। सभी द्रव्य और उनके गुण-पर्याय अपने-अपने स्वरूपमें निमग्न और स्वतन्त्र हैं। विश्वमें यही मात्र एक ऐसा दर्शन है जो परमार्थसे ऐसी वस्तु व्यवस्थाके आधारसे सभीकी वास्तविक स्वतन्त्रताका उद्घोष करता है। समयसारमें इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर यह कलश उपलब्ध होता है
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यत्मतत्त्वयोः ।
कर्तृ-कर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः ॥२०॥ पर द्रव्य और आत्मतत्त्वमें सभी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है, तब फिर । उनमे परस्पर कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी नहीं बनता, इसलिये आत्मा पर द्रव्यका कर्ता कैसे हो सकता है ॥२००॥ ___ यह वस्तु स्थिति है। इसके ऐसा होनेपर भी जिनागममें नैगमनय या असद्भत व्यवहार नयसे प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर बाह्य . निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध आदि सभी प्रकारके जो भी सम्बन्ध स्वीकर " किये गये हैं वे किस नयसे स्वीकार किये गये हैं इसकी यहाँ विस्तारसे मीमांसा करनी है--
सर्व प्रथम प्रश्न यह है कि जो जिस वस्तु या गुणमें नहीं है उसे उसका स्वीकार ही क्यों किया गया ? समाधान यह है कि जो जिस वस्तु या गुणमें न भी हो, परन्तु यदि प्रयोजन विशेषसे वह उसकी सिद्धि करता है अर्थात् उसकी सिद्धिका हेतु होता है तो लोकमें व्यवहारसे वह उसका माना जाता है। जैसे 'यह घोड़ा किसका है' ऐसी जिज्ञासा होनेपर लोकमें यह स्वीकार किया जाता है कि 'यह घोड़ा राजाका है।' यहाँ पर यदि स्वस्वभावी सम्बन्धकी अपेक्षा विचार किया जाय तो वास्तवमें घोड़ा राजा आदि अन्य किसीका नहीं है, घोड़ा स्वयंका है, राजा आदि अन्य किसीका नहीं। प्रयोजनवश केवल लोकिक व्यवहारके चलानेके लिये यह कहा जाता है कि यह धोड़ा राजाका है । अन्य लौकिक