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जैनतत्त्वमीमांसा नित्य शब्दकी सामर्थ्यका खण्डन नहीं करता हुआ सहकारी कारण अकिंकर कैसे नहीं हो जाता, अर्थात् अवश्य हो जाता है । यदि मीमांसक कहे कि सहकारी कारण नित्य शब्दको सामर्थ्यका खण्डन कर देता है तो उसके नित्य स्वभावकी हानिका प्रसंग आता है, क्योंकि नित्य शब्द की सामर्थ्य उससे अभिन्न है। ___मीमांसक शब्दको सर्वथा नित्य मानकर उसकी व्यंजना (अभिव्यक्ति) ध्वनिरूप सहकारी कारणसे मानता है। उसीको लक्ष्यकर उक्त वचन आया है । मीमांसकसे उसकी मान्यताको ध्यानमें रखकर यह पच्छा की गई है कि ध्वनिके द्वारा जब शब्दकी व्यंजना होती है तब शब्दसे सर्वथा अभिन्न उस ध्वनिसे शब्दके नित्य स्वभावका (सामर्थ्यका) खंडन होता है या नहीं ? यदि मीमांसक कहे कि ध्वनिसे सर्वथा नित्य शब्दकी सामर्थ्यका खण्डन नहीं होता है तो यह आपत्ति दी गई है कि तब सहकारी कारणकी व्यर्थता सिद्ध होतीहै-वह अकिचित्कर हो जाता है। यदि वह कहे कि इससे सर्वथा नित्य शब्दकी सामर्थ्यका खण्डन हो जाता है तो उसने शब्दको जो सर्वथा नित्य माना है उसके उस स्वभावकी हानिका प्रसंग आता है।
इस प्रकार हम देखते है कि आचार्य विद्यानन्दने उक्त कथन द्वारा मीमांसककी मान्यतानुसार दोनों तरफसे उसे जकड कर उसकी मान्यताका ही खण्डन किया है। किन्तु दुर्भाग्य है कि ऐसे भी व्यवहाराभासी है जो इस उद्धरणका दुरुपयोग अपने व्यक्तिगत अभिमतके समर्थन में करते है । अस्तु ।
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममे प्रयोजन विशेषको ध्यानमे रखकर व्यवहारसे चाहे प्रयोगरूप निमित्त स्वीकार किया गया हो या विसा निमित्त, है दोनो ही अपनेसे भिन्न द्रव्यकी कार्यकी उत्पत्तिके समय उस द्रव्यकी क्रिया करनेकी अपेक्षा अकिंचित्कर ही। इनमे जो व्यवहारसे कारणता स्वीकार की गई है वह केवल अन्वयव्यतिरेकको देखकर कालप्रत्यासत्तिवश प्रत्येक समयमे प्रत्येक द्रव्य किस पर्यायको कर रहा है इस निश्चयकी सिद्धि करने के लिये ही स्वीकार की गई है।
परमार्थसे एक द्रव्य कारण रूपसे दूसरे द्रव्यका कार्य करनेमे कुछ भी समर्थ नही है-वह अकिंचित्कर है इसी तथ्थको ध्यानमें रखकर आचार्य पूज्यपादने इष्टोपदेशमें यह वचन कहा है
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाशत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत् ।।३५।।