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निश्चयउपादान-मीमांसा समय इन अवस्थाबोंको प्राप्त कर मुक्त होते हैं। इतना स्पष्ट है कि मुक्त होनेके अनन्तर पूर्व अयोगी अवस्था नियमसे होती है। अतएव निश्चय उपादान कारण और कार्यके ये लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। . (२) निश्चय उपादानका स्वरूप
नियतपूर्वक्षणवतित्वं कारणलक्षणम् । नियतोतरक्षणवतित्वं कार्यलक्षणम् । अष्टसहस्री टिप्पण पृ० २११ ।
नियत पूर्व समयमें रहना कारणका लक्षण है और नियत उत्तर क्षण | में रहना कार्यका लक्षण है।
यद्यपि इसेमें जो नियत पूर्व समयमें स्थित है उसे कारण और जो नियत उत्तर समयमें स्थित है उसे कार्य कहा गया है पर इससे निश्चय उपादान कारण और उसके कार्यका सम्यक बोध नहीं होता, क्योंकि नियत पूर्व समयमें द्रव्य और पर्याय दोनो अवस्थित रहते हैं, इसलिए इतने लक्षणसे कौन किसका निश्चय उपादान कारण है और किस निश्चय उपादानका कौन कार्य है यह बोध नहीं होता। फिर भी उक्त कथनसे निश्चय उपादान कारण और कार्यमें एक समय पूर्व और बादमें होनेका नियम है यह बोध तो हो हो जाता है। निश्चय उपादान कारणका अव्यभिचारी लक्षण क्या है इसका स्पष्ट उल्लेख अष्टसहस्री (पृ० २१० ) में एक श्लोक उद्धृत करके किया है। वह श्लोक इस प्रकार है
त्यक्तात्यक्तात्मरूप यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते ।
कालत्रयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ।। जो द्रव्य तीनों कालोंमें अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ता 1 हुआ पूर्वरूपसे और अपूर्वरूपसे वर्त रहा है वह उपादान कारण है ऐसा / जानना चाहिए।
यहाँपर द्रव्यको उपादान कहा गया है। उसके विशेषणों पर ध्यान देनेसे विदित होता है कि द्रव्यका न तो केवल सामान्य अंश उपादान होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है। किन्तु सामान्य विशेषात्मक द्रव्य ही निश्चय उपादान होता है। द्रव्यके केवल सामान्य अंशको और केवल विशेष अंशको उपादान मानने में जो आपत्तियाँ आती हैं उनका निर्देश स्वयं आचार्य विद्यानन्दने एक दूसरा श्लोक उद्धृत करके कर दिया है। वह श्लोक इस प्रकार है
यत् स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यजति सर्वथा । सम्मोपाधानमर्यस्य क्षणिक पाश्वतं यथा ॥