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जैनतत्वमीमांसा नैमित्तिकसम्बन्धकी यह व्यवस्था है जो अनादि कालसे यथासम्भव इसी क्रमसे एक साथ चली आ रही है और अनन्त काल तक इसी क्रम से चलती रहेगी।
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार सर्वत्र एक ओरसे नहीं होता, किन्तु कहीं-कहीं दोनों ओरसे भी होता है। उदाहरण स्वरूप जब घट कार्यकी मुख्यता होती है तब विवक्षित योग और उपयोगसे युक्त कुम्हार उसका व्यवहार हेतु कहा जाता है
और घट कार्य नैमित्तिक कहा जाता है। किन्तु जब कुम्हारका विवक्षित योग और उपयोगरूप क्रिया व्यापार किस बाह्य निमित्तसे हुआ इसका विचार किया जाता है तो जो मिट्टी घट पर्यायरूपसे परिणत हो रही है वह उसका बाह्य निमित्त कहा जायगा और विवभित योगउपयोगविविष्ट कुम्हार उसका नैमित्तिक कहा जायगा । अनुभवमें तो यह बात आती ही है, आगमसे भी इसका समर्थन होता है। ऐसा नियम है कि जिस उपशम सम्यग्दृष्टिके उपशम सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि काल शेष रहता है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेसे किसी एक प्रकृतिको उदीरणा होने पर सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति होती है। अब एक ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव लीजिए जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है। ऐसे जीवको द्वितीय गुणस्थानकी प्राप्ति तब हो सकती है जब अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सत्त्व होकर उसमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणा हो और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सत्त्व और उसमेसे किसी एक प्रकृतिको उदीरणा तब हो सकती है जब उसे सासादन गुणकी प्राप्ति हो। स्पष्ट है कि यहाँ पर सासादन गुणकी प्राप्तिका निमित्त अनन्तानुबन्धीकी उदीरणा है और उसके सत्त्वके साथ उदीरणाका निमित्त सासादन गुण है। फिर भी ऐसे जीवको सासादन गुणकी प्राप्ति किस निमित्तसे होती है इतना दिखलाना प्रयोजन रहनेसे यह कहा जाता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणाके निमित्तसे होती है। इस विषयको और भी स्पष्टरूपसे समझनेके लिए व्यणुकका उदाहरण पर्याप्त है, क्योंकि द्वचणुकके दोनों परमाणु अपनी-अपनी बन्धपर्यायकी उत्पत्तिके प्रति उपादान होकर भी परस्पर दोनोंमें व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक भाव भी है। इतना अवश्य है कि यहाँ पर है यह वैनसिक बन्ध का ही उदाहरण, क्योंकि इसमें पुरुष प्रयोग निमित्त नहीं है । इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिये।