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जैनतत्त्वमीमांसा
इस कथन से यह फलित हुआ कि करणानुयोगके अनुसार जिन्हे औपशमिक आदि भाव कहा जाता है वास्तवमें वे जीवके स्वभाव ही है और उनकी उत्पत्तिमें लौकिक पुरुषार्थ, जिसे आचार्यदेवने अष्टशती में ( पुरुषार्थ पुन इहचेष्टितं दृष्टम् ) इह चेष्टा कहा है उसकी अणुमात्र भी अपेक्षा नहीं पड़ती। वह तो मन, वचन और कायकी प्रवृतिपूर्वक होनेवाले मानसिक विकल्पोंसे मुक्त होकर अपने त्रिकाली ज्ञायक भावमें उपयोग द्वारा लीनता प्राप्त करने पर ही होता है। यह जीवका उक्त 'लौकिक पुरुषार्थसे भिन्न अलौकिक पुरुषार्थ है । यतः इन औपशमिक आदि भावोंके होने में जीवका यह लौकिक पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं है, इसीलिये उन्हे अपौरुषेय कह कर विस्रसा कहा है। तात्पर्य यह है कि इन अपशमिक आदि भावोंकी उत्पत्तिके न तो कर्मोकी उपशमादिरूप अवस्था करण निमित्त हैं और न ही इनकी उत्पत्ति जीवोंके प्रशस्त मन, वचन और कायके व्यापार परक व्रत नियमादिरूप लौकिक पुरुषार्थसे 1 ही होती है । जीवके जितने भी स्वभाव भाव उत्पन्न होते हैं उनकी
उत्पत्तिका मार्ग ही जुदा है । अध्यात्म उसी मार्गका प्रतिपादन करता है । इसकी पुष्टि में तत्त्वार्थवात्र्तिक अ० १ सूत्र २ का यह कथन भी दृष्टव्य है
कर्माभिधायित्वेऽप्यदोष इति चेत् ? न, मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विक्षितत्त्वात् । १० । स्य परनिमित्तत्वादुत्पादस्येति चेत् ? न, उपकरणमात्रत्वात् । ११ । आत्मपरिणामात्र तद्रमघातात् |१२| अहेयत्वात् स्वधर्मस्य | १३ | प्रधानत्वात् | १४ | प्रत्यासत्ते |१४|
शंका - मोक्षका कारण सम्यक्त्व नामक द्रव्यकर्मको कहने पर भी कोई दोष नही है ।
समाधान --- नहीं, क्योंकि मोक्षके कारणरूपसे आत्माका परिणाम ही विवक्षित है । सम्यक्त्व नामक द्रव्यकर्म पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है, इसलिये मोक्षके कारणरूपसे वह विवक्षित नहीं है ।
शका - सम्यक्त्वकी उत्पत्ति स्व और पर ( सम्यक्त्व कर्म) दोनोंके निमित्तसे होती है, इसलिये सम्यक्त्व नामक द्रव्य कर्मको भी मोक्षका कारण मानना चाहिये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बाह्य साधन उपकरणमात्र है ।
दूसरे सम्यक्त्व आदि आत्मपरिणामोंसे सम्यक्त्व कर्मका उत्तरोत्तर रसघात ही होता है, (२) तीसरे आत्माका यह सम्यक्त्व परिणाम त्यागा