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बाएकारणमीमांसा (२) औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावोंके सम्बन्धमें भी यही नियम लागू होता है।
शंका-परमागममें विवक्षित कर्मका क्षय एक समय पहले स्वीकार किया गया है और क्षायिक भाव उससे अव्यवहित अनन्तर समयमें स्वीकार किया गया है जैसे १४वें गुणस्थानके अन्तिम समयमें चारों अघातिया कर्मोका क्षय स्वीकार किया गया है, किन्तु सिद्ध पर्यायकी प्राप्ति उससे अव्यवहित अनन्तर समयमें स्वीकार की गई है सो क्यों?
समाधान-ऐसे स्थल पर सद्भावमें ही अभावका उपचार कर यह कथन किया गया है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें चारों अघातिया कर्मोंकी यथासम्भव प्रकृतियोका सत्त्व व उदय पाया जाता है। यतः यह सत्त्व और उदय और आगेकी पर्यायमें नही है, इसलिये वही उनमें क्षय व्यवहार कर लिया गया है।
(३) प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव अपने सम्यग्दर्शनके कालमें कम से कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि काल शेष रहनेपर यदि सक्लेश परिणामकी बहुलताके कारण नीचे गिरता है तो नियमसे सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है। यहाँ जिस समय सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति है उसी समय अनन्तानुबन्धी चारोंमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदय-उदीरणा है ऐसा परमागम स्वीकार करता है। इन दोनों में कालभेद नहीं है।
(४) द्विणुक आदि पुद्गलबन्धमे भी 'दूधिकादिगुणाना तु' सिद्धान्त के अनुसार दोनोंके मध्य निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके स्वीकारमें समय भेद नहीं स्वीकार किया गया है। ___ ये कुछ आगमिक प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि व्यवहारसे स्वीकार किये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धमें समय भेद नहीं स्वीकार किया जा सकता है । और इसी आधारपर बौद्धोंके द्वारा अनुमान प्रमाणमें कारण हेतुका निषेध करनेपर उसका परीक्षामुख आदि न्याय ग्रन्थोंमें व्यवहार निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धमें समय भेदका निषेध करनेके साथ अनुमान प्रमाणमें कारण हेतुका दृढ़तासे समर्थन किया गया है। देखो परीक्षामुख अ० ३ सूत्र ५६ से लेकर ५९ तक ।
इस प्रकार एक द्रव्यके कार्यको दूसरे द्रव्यमे व्यवहार हेतुता कब बनती है इसका संक्षेपमें विचार किया।