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जैनतत्त्वमीमांसा
शंका- निश्चय सम्यग्दर्शन आदिरूप निश्चय मोक्षमार्गकी प्राप्तिके समय जब प्रशस्त मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिरूप व्यवहार मोक्षमार्ग होता ही नही तब उस समय उसको निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धिका हेतु कैसे माना जा सकता है ?
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समाधान --- जिस समय यह जीव निश्चय सम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त होता है उसी समय उसके मिथ्यात्वके अभाव के साथ अनन्तानुबन्धी कषायोका यथा सम्भव अभाव होनेसे ऐसा प्रशस्त राग ही नियमसे पाया जाता है जिसमें मोक्षमार्गपनेका व्यवहार किया जाता है। यही कारण है कि परमागममे एक ही समयमे ऐसे व्यवहार मोक्षमार्गको साधन - सिद्धिका हेतु और निश्चय मोक्षमार्गको साध्य कहा गया है। परमागममें दो में साध्य-साधक भावका व्यवहार इसी दृष्टिसे किया गया है । बाह्य पदार्थ कारकपनेका व्यवहार भी इसी आधारपर किया जाता है, क्योंकि जिन दो पदार्थोंमें उपचारसे भी निमित्तनैमित्तिव्यवहार न हो और कारक व्यवहार बन जाय ऐसा नही है । परमार्थसे साध्य - साधक भाव एक पदार्थ में कैसे बनता है इसके लिये यह कलश दृष्टव्य हैज्ञावचनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्य-साधकभावेन द्विधैक समुपास्यताम् || १५ ॥
यह ज्ञानघन आत्मा यद्यपि सद्भृत्त व्यवहारनय - साध्य - साधकके भेदसे दो प्रकारका है पर परमार्थसे वही साध्य और वही साधन इस प्रकार एक ही प्रकारका है । इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको इसी एक आत्मा की उपासना करनी चाहिये ||१५|| शुभभाव और स्वभाव पर्यायमें साध्यसाधक भाव अमद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार किया गया है ।
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इस प्रकार प्रसंगसे व्यवहार - निश्चय साध्य-साधक भावका खुलासा करने के साथ अब दो पदार्थोंमे यह निमित्त - नैमित्तिकभाव कब होता है इसके समर्थनमे कुछ और प्रमाण दे देना चाहते हैं
(१) संसारकी भूमिकामे संसारी जीव अपने परिणाम स्वभावके कारण जिस समय विवक्षित भावको प्राप्त होता है उसी समय उस भाव में निमित्त व्यवहारके योग्य विवक्षित कर्मका उदय - उदीरणा पाई जाती है । और इसलिये यह व्यवहार किया जाता है कि इस कर्मके उदय उदी1रणासे यह भाव हुआ । जैसे जिस समय क्रोध कर्मका उदय उदीरणा
होती है उसी समय क्रोध पर्याय पाई जाती है। इसी प्रकार सर्वत्र कर्मके उदय - उदीरणाके साथ जीवके ओदयिक भावोंकी व्याप्ति जाननी चाहिये ।