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जैनतत्वमीमांसा
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सताकी उत्पादक नहीं हो सकती, क्योंकि बिरुद्ध दो सत्ताओंमें परस्पर उत्पाद्य उत्पादकभावके माननेमें विरोध आता है, अतएव ऋजुसूत्रकी दृष्टिमें उत्पाद भी निर्हेतुक होता है यह सिद्ध होता है ।
समग्र कथनका तात्पर्य यह है कि ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें पर्याय स्वतन्त्र है, वह अपने कालमें स्वयं है । वह किसी द्रव्य या योग्यताके अधीन नहीं है । यह नय द्रव्य या योग्यताकी उपेक्षा कर मात्र अपने विषयको ही स्वीकार करता है । परसापेक्ष कथन इस नयका विषय नहीं है, वह द्रव्यार्थिकनय या नैगमनयका विषय है, क्योंकि नेगमनय एक तो संकल्पप्रधान नय है, वह सत्-असत् दोनोंको विषय करता है । दूसरे वह गोण - मुख्यभावसे द्रव्य और पर्याय दोनोंको विषय करता है, मुख्यतः उसका विषय उपचार है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए जयधवला पु० १ पृ० २०१ में आचार्य वीरसेन क्या कहते हैं, यह उन्होंके शब्दोंमें पढिये - यदस्ति न तद् द्वयमतिलंघ्य वर्तत इति नैक गमो नंगम. । शब्द-शील-कर्मकार्य-कारणाधा राधेय - सहचार- मान - मेयोन्मेय-भूत भविष्यद्वर्तमानादिकमाश्रित्योपचारविषयः ।
जो है वह दोनोंको छोड़कर नहीं वर्तता, इसलिये जो केवल एकको ही प्राप्त नहीं होता है, किन्तु गौण - मुख्यभावसे दीनोंको ग्रहण करता है वह नैगमनय है । शब्द, शील, कर्म, कार्य-कारण, आधार-आधेय, सहचार, मान-मेय, उन्मेय, भूत-भविष्यत् वर्तमान आदिकके आश्रयसे होनेवाला उपचार नैगमनयका विषय है ।
यद्यपि अध्यात्ममे व्यवहारको अनेक प्रकारका स्वीकार किया गया है । उनमेंसे उपचारकी परिगणना व्यवहारनयमें की गई है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए नयचक्रमें यह वचन आया है
वि यदव्वसहावं उवयार तं पि ववहारं । गा० ६५, पृ० ३४ | जो उपचाररूप द्रव्यका स्वभाव है वह भी व्यवहार है ।
इस प्रकार संक्षेपरूपमें किये गये इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य-कारणभावका कथन मुख्यतया नैगमनय ( व्यवहारनय) का विषय है । अब आगे विशदरूपसे इसका विवेचन किया जाता है२ कारणसामान्यका लक्षण
प्रत्येक द्रव्यकी प्रति समय अपने परिणमनशील स्वभावके कारण जो उत्पाद व्ययरूप अवस्था होती है उसीकी लोकमें कार्य संज्ञा है । इसीको