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. विषय प्रवेश इस द्वारा यह बतलाया गया है कि यदि कोई अद्वैतवादी कल्पित मुक्तियों द्वारा जड़-चेतन सब पदार्थोंमें एकता स्थापित करना चाहता है तो वह उपचरित महासत्ताको स्वीकार करके उसके द्वारा ही ऐसा कर सकता है। परमार्थभूत स्वरूपास्तित्वके द्वारा नहीं। इसप्रकार इस नयके विषय पर विचार करनेसे विदित होता है कि जो इस नयका कथन है वह है तो उपचरित है ही, पर उससे फलितार्थ रूपमें सबके स्वरूपास्तित्वकी ही प्रसिद्धि होती है, इसलिए इसे आगममें स्थान मिला हुआ है । अपर संग्रह और स्थूल ऋजुसूत्र नयका विषय क्यों उपचरित है इसका भी इसी दृष्टिसे ऊहापोह कर लेना चाहिए, क्योंकि ये नय भी विवक्षावश अनेकमें एकत्वको स्थापना कर अपने विषयको स्वीकार करते हैं।
व्यवहारनय विवक्षित धर्मों द्वारा भेद करके ही जीवादि द्रव्योंको स्वीकार करता है, इसलिये अध्यात्ममें इसकी भी उपचरित नयोंमें परिगणना होती है। __ अब शेष रहे ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायाथिक नय सो इनका अन्तर्भाव सद्भूत व्यवहार नयमें होता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुमें स्वभावसे अमेद होनेपर भी इनमें पर्यायाश्रित और शब्दाश्रित भेद कल्पना मुख्य है। पण्डितप्रवर आशाधरजी सद्भूत व्यवहार नयके लक्षणका निर्देश करते हुए अनगारधर्मामृत अ० १ श्लो० १०४ की स्वरचित टीकामें लिखते हैं
तत्र सद्भूतः स्यात् । किरूपः ? भिदुपचारो भेदकल्पना। कस्यां सत्याम् ? अभिधायामपि अभेदेऽपि ।
इस प्रकार विचार करनेपर विदित होता है कि परमागममें प्रत्तिपादित इन सातों नयोंका अन्तर्भाव यथासम्भव सद्भूत व्यवहारनयमें
और असद्भूत व्यवहारनयमें हानेसे ये उपचरित अर्थको ही विषय करते हैं। फिर भी इन द्वारा अनुपचरित अर्थकी प्रसिद्धि होती है, इसलिए इन्हें परमागममें सम्यक् नयरूपसे स्वीकार किया गया है। प्रकृतमें 'भिदुपचारः' का अर्थ पण्डितप्रवर आशाघरजीने 'भेदकल्पना' किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपवार और कल्पना इन दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए नयचक्रमें यह गाथा आई है
णिच्छय-ववहारणया मूलिमभेया णयाण सव्वाणं ।
पिच्छ्यसाहणहेउं पज्जय-दवस्थियं मुणह ॥१८२।। सब नयोंके मूल भेद निश्चयनय और व्यवहारनय हैं। पर्यायाथिक /नय और द्रव्याथिकनयको निश्चयकी सिद्धिका हेतु जानो ॥१८२॥