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जैनतत्त्वमीमांसा नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्ध: परब्रम्यास्मतत्त्वयोः
कर्तृ-कर्मत्वसम्बन्धाभावे तस्कर्तृता कुतः ॥२००॥ यह परमार्थ सत्य है। इसलिए एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ जो संयोगसम्बन्ध, संश्लेशसम्बन्ध या आधार-आधेयभाव आदि कल्पित किया जाता है उसे अपरमार्थभूत ही जानना चाहिए। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए कटोरीमें रखा हुआ धो लीजिए। हम पूछते हैं कि उस घीका परमार्थभूत आधार क्या है-कटोरी है या घी? आप कहोगे कि घीके समान कटोरी भी है, तो हम पूछते हैं कि कटोरीको ओंधा करनेपर वह गिर क्यों जाता है ? 'जो जिसका वास्तविक आधार होता है उसका वह कभी भी त्याग नहीं करता।' इस सिद्धान्तके अनुसार यदि कटोरी भा घीका वास्तविक आधार है तो उसे कटोरीको कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। परन्तु कटोरीके ओंधा करनेपर वह कटोरीको छोड़ ही देता है। इससे मालूम पड़ता है कि कटोरी घीका वास्तविक आधार नहीं है। उसका वास्तविक आधार तो घी ही है, क्योंकि वह उसे कभी भी नही छोड़ता। व्यवहारसे वह चाहे कटोरीमे रहे, चाहे भूमिपर रहे या चाहे उड़कर हवामें कण-कण होकर विखर जाये, वह रहेगा घी ही । (यहाँपर यह दृष्टान्त धीरूप पर्यायको द्रव्य मानकर दिया है, इसलिए घीरूप पर्यायके बदलनेपर वह बदल जाता है यह कथन प्रकृतमें लागू नही होता।) यह एक उदाहरण है । इसीप्रकार प्रयोजनवश कल्पित किये गये जितने भी सम्बन्ध हैं उन सबके विषयमें इसी दृष्टिकोणसे विचार कर लेना चाहिए। स्पष्ट है कि माने गये सम्बन्धोंमे एकमात्र तादात्म्य सम्बन्ध ही परमार्थभूत है । इसके सिवा बाहय सयोग आदिकी दृष्टि से अन्य जितने भी सम्बन्ध कल्पित किये जाते है उन्हें उपचरित अतएव अपरमार्थभूत ही जानना चाहिए। बहुतसे मनीषी यह मानकर कि इससे व्यवहारका लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धोंको परमार्थभूत मानेनेकी चेष्टा करते हैं। परन्तु यह उनकी सबसे बड़ी भूल है, क्योंकि इस भूलके सुधरनेसे यदि उनके व्यवहारका लोप होकर परमार्थको प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है। ऐसे व्यवहारका लोप भला किसे इष्ट नहीं होगा। इस संसारी जीवको स्वयं निश्चयस्वरूप बननेके लिए अपने में अनादिकालसे चले आ रहे इस अज्ञानमूलक व्यवहारका ही तो लोप करना है। उसे और करना ही क्या है । वास्तवमें देखा जाय तो यह १. सर्वा० अ० ५, सू० १२ ।