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जैनतत्वमीमांसा
यद्यपि सद्भूत व्यवहारसे असद्भूत व्यवहारमें मौलिक अन्तर है । सद्भूत व्यवहार जहाँ धर्मसि धर्मोका प्रयोजनादिवश भेद स्वीकार करके प्रवृत्त होता है वहाँ असद्भूत व्यवहार विवक्षित वस्तुसे भिन्न वस्तुमें कर्ता कारक आदिका आरोप करनेसे स्वीकार किया जाता है | इसलिए इन दोनोंकी एक कोटिमें परिगणना नहीं की जा सकती । प्रकृतमें एकको सद्भूत व्यवहार और दूसरेको असद्भूत व्यवहार कहनेका कारण भी यही है । इतना अवश्य है कि मोक्षमार्ग में ये दोनों प्रकारके व्यवहार आश्रय करने योग्य नहीं हैं । चिन्मूर्ति एक अखण्ड ज्ञायकस्वरूप आत्मापर दृष्टि स्थापित करनेके लिए जहाँ सद्भूत व्यवहार आश्रय करने योग्य नहीं है वहाँ पराश्रित बुद्धिसे परावृत होकर जीवनमें स्वाश्रितपनेकी प्रसिद्धि करनेके लिए असद्भूत व्यवहार आश्रय करने योग्य नहीं है ।
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इस प्रकार आगममें उपचरित कथन कितने प्रकारसे किया गया है और वह कहाँ किस आशयसे किया गया है इसका सम्यक् विचार कर अब अनुपचरित कथनकी संक्षेपमें मीमांसा करते हैंअनुपचरित कथनका विस्तृत विचार
(१) यह तो स्पष्ट है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणामी नित्य है । इसलिए वह अपने नित्य स्वभावको न छोड़ते हुए अपने इस परिणमनस्वभावके कारण ही परिणमन कर पूर्व - पूर्व पर्यायके व्ययपूर्वक उत्तर-उत्तर पर्यायको प्राप्त करता है । अन्य कोई परिणमन करावे तब वह परिणमन करे, अन्यथा न करे ऐसी वस्तु व्यवस्था नहीं है । कार्य-कारणपरम्परामें यह सिद्धान्त परमार्थभूत अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला है । इससे परमार्थको लक्ष्य में रखकर ये तथ्य फलित होते है
१. यह जीव अपने ही कारणसे स्वयं ससारी बना हुआ है और अपने ही कारणसे मुक्त होता है, इसलिए यथार्थरूपसे कार्यकारण भाव एक ही द्रव्यमें घटित होता है। नयचक्रमें कहा भी है
is a create अण्णो वषहारदो य णायण्णो । frच्छयो पुण जीवो भणियो खलु सवदरसीहिं ॥ २३७॥ व्यवहारसे ( असद्भूत व्यवहारसे ) बन्ध और मोक्षका हेतु अन्य
१. समय० गा० ११६ से १२५ आ० ख्या० टी० ।
२. 'बंधेय इति पाठ: ' भा० ज्ञा० । इस पाठ के अनुसार
समान मोक्षका हेतु अन्यको जानना चाहिए' एक ही है ।
'व्यवहारसे बन्धके
ऐसा होता है। आशय दोनों का