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जैनतत्त्वमीमांसा एक द्रव्य अन्य द्रव्यको क्यों नहीं परिणमा सकता इसके कारणका निर्देश करते हुए वे इसी समयप्राभृतमें कहते हैं
जो जम्हि गुणे दन्वे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दवे । __ सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ॥१६३ ॥ जो जिस द्रव्य या गुणमें अनादि कालसे वर्त रहा है उसे छोड़कर वह अन्य द्रव्य या गुणमें कभी भी संक्रमित नहीं होता। वह जब अन्य द्रव्य या गुणमें संक्रमित नहीं होता तो वह उसे कैसे परिणमा सकता है, अर्थात् नहीं परिणमा सकता ॥१०॥
तात्पर्य यह है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे सब अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही होते हैं। यह नहीं हो सकता कि उपादान तो घटका हो और उससे पटकी निष्पति हो जावे। यदि घटके उपादानसे पटकी उत्पत्ति होने लगे तो लोकमें न तो पदार्थोंकी ही व्यवस्था बन सकेगी और न उनसे जायमान कार्योंकी ही । 'गणेशं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्' जैसी स्थिति उत्पन्न हो जावेगी।
जिसे जैनदर्शनमें उपादान कारण कहते है उसे नैयायिकदर्शनमें समवायीकारण कहा है। यद्यपि नैयायिकदर्शनके अनुसार जड़-चेतन प्रत्येक कार्यका मुख्य कर्ता इच्छावान्, प्रयत्नवान् और ज्ञानवान् सचेतन पदार्थ ही हो सकता है, समवायीकारण नहीं। उसमें भी वह सचेतन पदार्थ ऐसा होना चाहिए जिसे प्रत्येक समयमें जायमान सब कार्योंके अदृष्टादि कारकसाकल्यका पूरा ज्ञान हो। इसीलिए उस दर्शनमें सब कार्योके कर्तारूपसे इच्छावान्, प्रयत्नवान् और ज्ञानवान् ईश्वरकी स्वतन्त्ररूपसे स्थापना की गई है। इस प्रकार हम देखते है कि जिस दर्शनमें सब कार्योक कर्तारूपसे ईश्वरपर इतना बल दिया गया है वह दर्शन ही जब कार्योत्पत्तिमे समवायी कारणोंके सद्भावको स्वीकार करता है। अर्थात् अपने अपने समवायीकारणोंसे समवेत होकर ही जब वह घटादि कार्योंकी उत्पत्ति मानता है ऐसी अवस्थामें अन्य कार्यके उपादानके अनुसार अन्य कार्यकी उत्पत्ति हो जाय यह मान्यता तो त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है। यही कारण है आचार्य कुन्दकुन्दने परमार्थसे जहाँ भी किसी कार्यका कारणकी दृष्टिसे विचार किया है वहाँ उन्होंने उसके कारणरूपसे उपादान करणको ही प्रमुखता दी है। वह कार्य चाहे संसारी आत्माका शुद्धि सम्बन्धी हो और चाहे घट-पटादिरूप अन्य कार्य हो, परमार्थसे होगा वह अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही यह उनके कथनका