________________
विषय प्रवेश द्रव्योंका परस्पर तादात्म्य सम्बन्ध न होनेसे व्याप्य-व्यापकभाव भी नहीं है तथा उनमें एक-दूसरेके कर्तृत्व और कर्मत्व आदिरूप धर्म भी नहीं उपलब्ध होते। फिर भी प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर लोकानुरोधवश उनमें यह इसका कर्ता है और यह इसका कर्म है इत्यादि रूप व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। इससे विदित होता है कि शास्त्रोंमें ऐसे व्यवहारको जो असद्भूत व्यवहारनयका विषय कहा है वह ठीक ही कहा है। स्पष्ट है कि यह व्यवहार उपचरित ही है,परमार्थभूत नहीं। इसी तथ्यको दूसरे शब्दोंमें स्पष्ट करते हुए श्री आ० देवसेन भी अपने श्रुतभवनदीपक नयचक्रमें 'वबहारोऽभूयत्यो' इत्यादि गाथाओंके व्याख्यानके प्रसग से क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए
उपनयोपजनितो व्यवहारः प्रमाण-नय-निक्षेपात्मा । भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत् ? सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तु उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासद्भूतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात् । योऽसी भेदोपचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थः ।.... अतएव व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थः ।
प्रमाण, नय और निक्षेपात्मक जितना भी व्यवहार है वह सब उपनयसे उपजनित है । भेद द्वारा और उपचार द्वारा वस्तु व्यवहृत की जाती है, इसलिए इसकी व्यवहार संज्ञा है।
शंका-इस व्यवहारका उपनय जनक है यह कैसे ?
समाधान-भेदका उत्पादक सद्भूत व्यवहार है, उपचारका उत्पादक असद्भूतव्यवहार है और उपचारसे भी उपचारका उत्पादक उपचरित असद्भूतव्यवहार है । और जो यह भेद लक्षणवाला तथा उपचार लक्षणवाला अर्थ है वह अपरमार्थ है। अतः व्यवहार अपरमार्थका प्रतिपादक होनेसे अपरमार्थरूप है। तात्पर्य यह है कि यावन्मात्र व्यवहार विकल्पका विषय है, परमार्थस्वरूप नहीं।
यह आ० देवसेनका कथन है। इस द्वारा इन्होंने जब कि एक अखण्ड द्रव्यमें गुण-गुणी आदिके आश्रयसे होनेवाले सद्भूत व्यवहारको ही अपरमार्थभूत बतलाया है ऐसी अवस्थामें दो द्रव्योंके आश्रयसे कर्ता-कर्म आदि रूप जो उपचरित और अनुपचरित असद्भूत व्यवहार होता है उसे परमार्थभूत कैसे माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता यह स्पष्ट ही है।