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८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
असत्य है ही, ज्ञान भी सत्य नहीं है । इस शाखा के विद्वानों का सिद्धान्त है, शून्यवाद । शून्यवाद का अर्थ, जैसा कि लोग समझते हैं-अभाव नहीं है। शून्यवाद का अर्थ है. कि वस्तु का निर्वचन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तु अनिर्वचनीय है । न वह सत है, न असत्, न उभय है, और न अनुभय ही है।
महायान की दूसरी शाखा का नाम है-योगाचार। योगाचार शाखा यौगिक क्रियाओं में आस्था रखती है, और मानती है, कि बोधि की उपलब्धि एकमात्र योगाभ्यास के द्वारा ही हो सकती है। अतएव इसका नाम योगाचार पड़ गया। इस शाखा के मुख्य विद्वान् हैं-मैत्रेयनाथ, आर्य असंग और आर्य वसुबन्धु । आर्य असंग का काल ४०० ईस्वी माना गया है । वसुबन्धु ने विज्ञानवाद को जन्म दिया। विज्ञानवाद वौद्ध दर्शन का चरम विकास कहा जा सकता है । विज्ञानवाद के अनुसार एकमात्र विज्ञान ही परम सत्य है । बाह्य वस्तु, विज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है । उसको वास्तविक सत्ता नहीं है । विज्ञानवाद के बाद में, बौद्ध न्याय का विकास हुआ। न्याय के प्रवर्तक हैं-दिङ नाग और धर्मकीति । न्याय प्रवेश, प्रमाण-समुच्चय, प्रमाण वार्तिक, न्याय बिन्दु, हेतु बिन्दु और बौद्ध तर्क भाषा-बौद्धों के प्रसिद्ध न्याय ग्रन्थ हैं। जैन सम्प्रदाय
जैन धर्म और दर्शन अत्यन्त प्राचीन हैं। जैन परम्परा के प्रवर्तक अथवा संस्थापक तीर्थंकर होते हैं । सर्वप्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे, और चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर थे। जैन परम्परामान्य आगम भगवान् महावीर की वाणी हैं । महावीर और बुद्ध, दोनों समकालीन थे। महावीर ने जो कुछ बोला था, वह आगम कहलाता है और बुद्ध ने जो बोला था, वह त्रिपिटक कहाता है । आगम जैन सम्प्रदाय के शास्त्र हैं। धर्म और दर्शन का मूल उद्गम, आगम एवं शास्त्र हैं। जैन परम्परा इन आगमों में अथाह आस्था रखती है, और इनके विधानों के अनुसार साधना होती है । मूल आगम पांच विभागों में विभक्त हैं--अंग, उपांग, मूल, छेद और चूलिका।
जैन परम्परा का दार्शनिक साहित्य, चार युगों में विकसित हुआ है -आगम युग, दर्शन युग, अनेकान्त व्यवस्था युग और न्याय युग, तर्क युग अथवा प्रमाण युग । आगम युग में, मूल आगम और उसके व्याख्या ग्रन्थ -नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका समाहित होते हैं । इस युग के प्रसिद्ध
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