________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६ | जैन न्याय शास्त्र : एक परिशीलन यह है कि जब मानव के लिए किसी कर्तव्य का विधान किया गया होगा, सुख-प्राप्ति और दुःखनिवृत्ति के उपाय बताए गए होंगे, तब अपने स्वरूप
और जगत् के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई होगी। उसी से दर्शन का उद्भव हुआ होगा। कम से कम भारतीय दर्शन के मूल में यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है।
जिज्ञासा के मूल में भी व्यक्ति का सुखप्राप्ति और दुःख विनाश का उद्देश्य ही निहित होता है। प्रत्येक आत्मा में दुःखनिवृत्ति की सनातन भावना रही है। जिस दिन मनुष्य ने अपने अन्तर के सुख-दुःख की और उसके कारणों की खोज प्रारम्भ की होगी, उसी दिन से दर्शन का प्रारम्भ हुआ होगा। चार्वाक सम्प्रदाय
- वेदभिन्न दर्शनों में पहले चार्वाक का नाम लिया जाता है । यह एक भौतिकवादी दर्शन है। इसके आचार्य बृहस्पति कहे जाते हैं। यह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है। आत्मा, परमात्मा और परलोक को स्वीकार नहीं करता। भारत के समस्त दर्शनों ने इसका जोरदार खण्डन किया है। फिर भी आज वह जीवित है । सम्प्रदाय के रूप में नहीं, ग्रन्थों में उसकी सत्ता है । जनता में वह लोकप्रिय रहा है । आज उसका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, लेकिन ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में उसकी सत्ता आज भी है। वैदिक, जैन और बौद्ध सभी ने इसके सिद्धान्तों का खण्डन किया है।
आचार्य वृहस्पति प्रत्यक्षवादी विचारक था। उसके अनुसार सृष्टि के निर्माण के चार तत्त्व हैं-भूमि, जल, अग्नि और वायू । आकाश तत्त्व को वह स्वीकार नहीं करता। क्योंकि उसका किसी भी इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता । तत्त्व चतुष्टय से ही शरीर की उत्पत्ति होती है। उनके मिलन से चैतन्य की भी उत्पत्ति हो जाती है। जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। इस मत में चैतन्य-विशिष्ट देह ही आत्मा है, जीव है। चार्वाक अभिमत प्रमाण
अभिमत तत्वों का परिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से हो जाता है । प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं--इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष । चार्वाक अनुमान को प्रमाण नहीं मानता। क्योंकि व्याप्ति का अभाव है। कार्य-कारण का अभाव है । इस मत में शब्द भी प्रमाण नहीं है। क्योंकि विश्वासयोग्य व्यक्ति के द्वारा कथित शब्द ही प्रमाण है । जो प्रत्यक्ष देखे
For Private and Personal Use Only