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भारतीय दर्शन में न्याय-विद्या | ७
जा सकते हैं। वेदों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि उनका प्रत्यक्ष नहीं होता । अतः एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है । प्रत्यक्ष न होने के कारण स्वर्ग तथा नरक को भी अस्वीकार कर दिया। परलोक को मानना बेबुनियाद की बात को मानने जैसा है । क्योंकि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है। इस भौतिकवादी दर्शन के दो विलक्षण सिद्धान्त हैं-जड़वाद और दुसरा अनीश्वरवाद । संक्षेप में, यही चार्वाक दर्शन की प्रमाण और प्रमेय व्यवस्था है। इस परम्परा में भी अनेक आचार्य समय-समय पर होते रहे हैं। बौद्ध सम्प्रदाय
बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व ५३५-४८५ में की थी। बुद्ध के बाद में उनकी शिक्षाओं की विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर १८ सम्प्रदायों में, बुद्ध का धर्म विभक्त हो गया। परन्तु मुख्य सम्प्रदाय दो हैंहीनयान और महायान । हीनयान को स्थविरवाद तथा सर्वास्तित्ववाद भी कहा जाता है। ___ सर्वास्तित्ववाद की दो मुख्य शाखाएं हैं-वैभाषिक और सौत्रान्तिक । वैभाषिक का अर्थ है-विशिष्ट भाष्य । विभाषा त्रिपिटक का टीका ग्रन्थ है। विभाषा के आधार पर विकसित होने के कारण इस शाखा का नाम वैभाषिक पड़ा । इस शाखा के प्रसिद्ध दार्शनिक दिङ नाग और धर्मकीर्ति हैं । दिङ नाग गुरु हैं, और धर्मकोति शिष्य हैं। इन वैभाषिकों का मत है कि ज्ञान और ज्ञेय दोनों सत्य हैं, मिथ्या नहीं। ये पदार्थ की सत्ता मानते हैं।
सूत्रान्त अथवा बुद्ध के मूल वचनों के आधार पर विकास करनेवाले सौत्रान्तिक कहे जाते हैं । अतः इस शाखा का नाम सौत्रान्तिक पड़ गया। इस शाखा के मुख्य प्रवर्तक ईस्वी सन् ३०० में होने वाले कुमारलब्ध हैं। मौत्रान्तिकों का मत है कि ज्ञान सत्य है, परन्तु ज्ञेय की सत्यता अनुमान के द्वारा ज्ञात होती है। ज्ञान का अर्थ है-प्रमाण और ज्ञय का अर्थ हैप्रमेय । अतः बौद्ध ताकिकों ने प्रमाण दो माने हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । दिङ नाग बौद्ध न्याय के पिता माने जाते हैं। धर्मकीर्ति ने बोद्ध न्याय को चरम-शिखर पर पहुँचा दिया था।
___महायान सम्प्रदाय का उदय हीनयान सम्प्रदाय की प्रतिक्रिया के रूप में हआ था। महायान को दो शाखाएं हैं-माध्यमिक और योगाचार। इनमें से मध्यम मार्ग का अनुसरण करने के कारण पहली शाखा का नाम माध्यमिक पड़ा । इस शाखा के मुख्य प्रवर्तक ईस्वी सन् १४३ के लगभग होने वाले आचार्य नागार्जुन थे । माध्यमिकों का मत है, कि ज्ञेय तो
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