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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
उपर्युक्त गुणों से रहित मुनि के गणधर बनने पर गण-पोषण, आत्म-संस्कार, संल्लेखना और उत्तमार्थ - इन चार बातों का विनाश माना गया था। ऐसा गुणहीन 'गणधर' छेद, मूल, परिहार और पारंचिक प्रायश्चित् का पात्र होता था। अथवा उसे चार महीने तक कांजिक भोजन का आहार लेना पड़ता था। 195
सामान्यतया श्रमणियों के गणधर को 'पुरूष' माना है, किंतु जिस ग्रन्थ में पुरूष आचार्य और उपाध्याय को क्रमशः 5 या 6 हाथ दूर से वंदन करने का विधान हो वहाँ पुरूष गणधर उनकी आंतरिक व्यवस्था का संचालक कैसे हो सकता है? वस्तुतः श्रमणियों की आंतरिक व्यवस्था गणिनी आदि श्रमणी वर्ग से ही होती होगी।
तुलना
दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के श्रमणी संघ की आन्तरिक व्यवस्था का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के श्रमणी संघ का एक सुव्यवस्थित संगठन था। उनके विभिन्न कार्यों का उत्तरदायित्व वहन करने के लिये गीतार्थ श्रमणियों को विभिन्न पदों पर प्रतिष्ठित किया जाता था तथा उसके लिये आवश्यक कर्त्तव्य और अधिकार भी निश्चित् कर दिये गये थे। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में आर्यिका संघ का संगठनात्मक, स्वतन्त्र और पूर्णतया विकसित स्वरूप परिलक्षित नहीं होता है ।
1. 16 श्रमणी - संघ में प्रविष्टि के नियम
1.16.1 प्रवेश के प्रेरक हेतु
वैदिक काल में जैसा कि हम देखते हैं स्त्रियों का स्थान उच्च था परंतु धीरे-धीरे जब समाज का दृष्टिकोण स्त्रियों के प्रति अनुदार बनने लगा, तब नारियाँ संसार से उपेक्षित होकर संयम के मार्ग पर आतुरता से बढ़ने लगीं। भगवान पार्श्वनाथ ने ऐसी हजारों स्त्रियों को अपने संघ में संरक्षण दिया जो वृद्धावस्था की देहली पर पहुँचकर भी अविवाहित जीवन व्यतीत कर रही थीं उनके संघ में प्रवेश पाने वाली 256 कुमारिकाओं की गाथा ज्ञातासूत्र एवं पुष्पचूलिका में वर्णित है। मदनरेखा %, यशोभद्रा 197 आदि उनके स्त्रियों ने पति की मृत्यु के पश्चात् श्रमणी बनने का मार्ग चुन लिया था। राजीमती ने यह समाचार सुनकर दीक्षा ले ली थी कि उसके मनसा स्वीकृत पति नेमिनाथ साधु बन गये थे। 98 भृगुपुरोहित की पत्नी यशा ने पति और पुत्रों को प्रव्रज्या ग्रहण करते देख स्वयं भी प्रव्रज्या ले ली थी । " भाई का अनुकरण करके बहिनों के दीक्षा लेने के भी उल्लेख हैं। मंत्री शकडाल की यक्षा यक्षदत्ता आदि सात पुत्रियों ने अपने भाई स्थूलभद्र के प्रव्रज्या लेने पर प्रव्रज्या ग्रहण की थी। 200 भाई शिवभूति का अनुकरण कर बहिन उत्तरा के तथा कालक का अनुकरण कर बहिन सरस्वती 201 के दीक्षित होने की घटना जैन इतिहास में वर्णित है। 195. पूर्वोक्तगुण व्यतिरिक्तो यद्यार्याणां गणधरत्वं करोति तदानीं तस्य चत्वारः कालविनाशमुपयान्ति, अथवा चत्वारि प्रायश्चित्तानि लभते गच्छादेर्विराधना च भवेदिति, वही, टीका, 4/185
196. उत्तराध्ययन निर्युक्ति पृ. 136 197. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 1283
198. उत्तराध्ययन, 22 वां अध्ययन
199. उत्तराध्ययन, 14 वां अध्ययन
200. (क) आवश्यक चूर्णि भाग 2 पृ. 183, (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, पृ. 181
201. प्रभावक चरित्र, आर्य कालकसूरि प्रबन्धः
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