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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संस्कृत शब्द कोश में स्थविर उसे कहा है जो दृढ़, पक्का, स्थिर और अडिग होता है। श्रमणी-संघ में स्थविरा का पद क्षुल्लिका-संद्य दीक्षिता साध्वी और भिक्षुणी से उच्च माना गया है। वंदन-व्यवहार और कृतिकर्म (सेवा) में क्रमशः प्रवर्तिनी उसके पश्चात् अभिषेका एवं तत्पश्चात् स्थविरा को महत्त्व दिया गया है। यदि वस्त्रादि ग्रहण करना हो तो भी प्रवर्तिनी, अभिषेका या गणावच्छेदिनी के अभाव में स्थविरा साध्वी वस्त्रादि लेने जा सकती है। कभी
प्रदेश में विहार करना पड़े या शयन करना पड़े तो स्थविरा साध्वियाँ बाल या तरूण साध्वियों के आगे और पीछे चलती हैं।
'स्थविरा' शब्द वैसे तो वृद्धत्व का सूचक है, किन्तु वृद्धत्व मात्र वय की अपेक्षा से ही नहीं है वरन् जो ज्ञान की पूर्ण अभ्यासी है, स्थानांग-समवायांग आदि आगमों की ज्ञाता हैं, उन्हें 'श्रुत स्थविरा' तथा जिनकी दीक्षा पर्याय 20 वर्ष से अधिक है वे 'पर्याय से स्थविरा' मानी गयी है।
___ शासन में स्थविरा का अत्यन्त महत्त्व है। संघीय समस्याओं को सुलझाने में स्थविरा साध्वी का उल्लेखनीय योगदान होता है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी आदि भी उनसे सलाह लेकर कार्य करते हैं। उनके निर्णयों को सम्मान देते हैं। स्थविरा साध्वी स्वयं तो संयम में दृढ़ होती ही है, धर्म में खिन्न होने वाली अन्य साध्वियों को भी स्थिर करती हैं।
1.15.1.8 भिक्षुणी
नियमों की सम्यक् जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् साध्वी भिक्षुणी कहलाती है। 'भिक्षुणी प्रतीता' कहकर भाष्यकार ने उसे संयम की ज्ञाता कहा है। जैन आगमों में 'भिक्खुणी' को 'निग्गंठी', 'समणी' 'साहुणी, 'अज्जा', 'संयतिनी' आदि अनेक नामों से संबोधित किया है।
1.15.1.9 क्षुल्लिका
सद्यः प्रव्रजिता साध्वी 'क्षुल्लिका' या 'बाला' कही जाती है। 92 सामान्यतः तीन वर्ष की दीक्षिता साध्वी जिसे संघ के आचार-नियमों की पूर्ण जानकारी नहीं होती उसे 'क्षुल्लिका' या 'खुड्डि' कहा गया है। यह साध्वी की सबसे सामान्य अवस्था है। अतः आचार्यों ने इसके शील व संयम की सुरक्षा हेतु अनेक प्रतिबंध लगाये हैं। क्षुल्लिका श्रमणी स्वतंत्र या एकाकी विचरण नहीं कर सकती, उसे प्रवर्तिनी आदि गीतार्थ साध्वियों की नेश्राय में रहने का ही विधान है। क्षुल्लिका कदाचित् संयम-मर्यादा का अतिक्रमण भी कर देती हैं तो भी उन्हें कठोर दण्ड नहीं दिया जाता। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, स्थविरा, भिक्षुणी, क्षुल्लिका आदि को क्रमशः अल्प-अल्पतर प्रायश्चित् का भागी कहा है तथा अधिकार एवं संघीय-व्यवस्था की दृष्टि से विलोम क्रम से अधिकाधिक महत्व प्रदान किया गया है।
सारांश
श्रमणी-संघ में प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी आदि चार पद अत्यन्त प्रभावसम्पन्न हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण-संघ में जो स्थान आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर तथा रत्नाधिक का है, वही स्थान श्रमणी-संघ में उपर्युक्त 190. असती पवत्तिणीए अभिसेगादी विवज्जए णीसा। गेण्हति थेरिया पुण दुगमादी दोण्ह वी असती।।
-बृ.भा., भाग 3, गा. 5963 191. तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ। तंजहा-जाइथेरे, सुयथेरे, परियायथेरे व्यवहार सूत्र 10/16 192. "क्षुल्लिका बाला"
- बृहत्कल्प भाष्य 4339
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