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चार गतियों में संज्ञा - 1. मनुष्य-गति में चारों संज्ञाएँ पायी जाती हैं, क्योंकि संज्ञी-मनुष्यों में
दृष्टिवादोपदेशिकी एवं दीर्घकालिकी-संज्ञा पायी जाती है एवं असंज्ञी-मनुष्यों
में हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा भी पायी जाती है। 2. तिर्यंच-गति में दीर्घकालिकी तथा हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा पायी जाती है।
3.
देव तथा नरक-गति में दीर्घकालिकी-संज्ञा पायी जाती है।
जैनदर्शन में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय -इन पाँच कायों में दीर्घकालोपदेशिकी आदि संज्ञा नहीं पायी जाती है, किन्तु उनमें आहारादि चारों संज्ञाएँ होती हैं।
सकषायी जीवों में सभी संज्ञाएँ पायी जाती हैं। किन्तु पूर्ण वीतराग–अवस्था प्राप्त होने पर संज्ञाएँ नहीं रहती हैं। देवताओं में सबसे कम आहारसंज्ञा, सबसे अधिक परिग्रहसंज्ञा होती है, तिर्यंचों में सबसे कम परिग्रहसंज्ञा और सबसे अधिक आहारसंज्ञा पायी जाती है। नारकियों में सबसे कम मैथुनसंज्ञा तथा सबसे अधिक भयसंज्ञा होती है, क्योंकि वे निरन्तर भयग्रस्त रहते हैं।39
संज्ञाओं की उत्पत्ति के विभिन्न कारण दृष्टिगोचर होते हैं। संज्ञाएँ वेदनीय अथवा मोहनीय-कर्म के उदय से उत्पन्न होती हैं तथा आहार आदि का सतत चिन्तन करते रहने से भी उत्पन्न होती हैं। सत्त्वहीनता से भयसंज्ञा, गरिष्ठ रसयुक्त तामसिक भोजन ग्रहण करने से मैथुनसंज्ञा और आसक्ति और ममत्वबुद्धि रखने से परिग्रहसंज्ञा की उत्पत्ति का कारण बनता है।
उपर्युक्त संज्ञाओं का समीचीन रूप से अध्ययन कर मनुष्यों के व्यवहार, मनोवृत्ति, आचार आदि का पता लगाया जा सकता है।
38 मणुआण दीहकालिय, दिट्ठिवाओवएसिआ केबि .............. (दण्डक-प्रकरण, गा. 33) 39 प्रज्ञापनासूत्र - 8/8/9 (सण्णापद)
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