Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
सूक्ष्म शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है। अपश्चानुपूर्वी उसे कहा जाता है, जहाँ पहले पीछे का कोई विभाग नहीं होता — पौर्वापर्य नहीं निकाला जा सकता । तात्पर्य यह हुआ कि उनका सम्बन्ध अनादि है । इसीलिए संसार-दशा में जीव कथञ्चित् मूर्त भी है। उनका अमूर्त रूप बिदेहदशा में प्रगट होता है। यह स्थिति बनने पर फिर उनका मूर्त द्रव्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहता । किन्तु संसार- दशा में जीव और पुद्गल का कथंचित् सादृश्य होता है, इसलिए उनका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं । अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध नहीं हो सकता । यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है-यह उचित है। इनमें किया प्रतिक्रियात्मक सम्बन्ध नहीं हो सकता ।
रूप [ ब्रह्म ] का सरूप [ जगत् ] के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता । रूप ब्रह्म के रूप-प्रणयन की वेदान्त के लिए एक जटिल समस्या है। संगति से असंगति [ ब्रह्म से जगत् ] और असंगति से फिर संगति की ओर गति क्यों होती है ? यह उसे और अधिक जटिल बना देती है ।
अमूर्त आत्मा का मुर्त शरीर के साथ सम्बन्ध की स्थिति जैन दर्शन के सामने वैसी ही उलझन भरी है। किन्तु वस्तुवृत्या वह उससे भिन्न है । जैन- दृष्टि के अनुसार अरूप का रूप प्रणयन नहीं हो सकता । संसारी श्रात्माए रूप नहीं होतीं। उनका विशुद्ध रूप अमूर्त होता है किन्तु संसार दशा में उसकी प्राप्ति नहीं होती। उनकी अरूप स्थिति मुक्त दशा में बनती है। उसके बाद उनका सरूप के घात प्रत्याघातों से कोई लगाव नहीं होता । विज्ञान और आत्मा
बहुत से पश्चिमी वैज्ञानिक श्रात्मा को मन से अलग नहीं मानते । उनकी दृष्टि में मन और मस्तिष्क-क्रिया एक चीज है। दूसरे शब्दों में मन और मस्तिष्क पर्यायवाची शब्द हैं । “पावलोफ्” ने इसका समर्थन किया है कि स्मृति मस्तिष्क [सरेबम] के करोड़ों सैलो [Cells] की क्रिया है। 'वर्गस'' जिस युक्ति के बल पर आत्मा के अस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करता है, उसके मूलभूत तथ्य स्मृति को "पावलोफ्” मस्तिष्क के सैलों [ Cells ] की क्रिया बतलाता है। फोटो के नेगेटिव प्लेट [ Negative plate ] में जिस प्रकार प्रतिबिम्ब खींचे हुए होते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क में अतीत के