Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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३१०] जैन दर्शन के मौलिक तत्व आत्म-पतन के भय से, किसी बाहरी संकोच या भय से नहीं, परम-आत्मा के सान्निध्य में रहते हैं वे आध्यात्मिक हैं।
___ उन्हीं में परम-आत्मा से सम्बन्ध बनाये रखने के सामर्थ्य का विकास होता है। इसके चरम शिखर पर पहुँच, वे स्वयं परम-आत्मा बन जाते हैं। साधना के सूत्र
(अप्रमाद) आर्यों ! आओ! भगवान् ने गौतम आदि श्रमणों को आमंत्रित किया। भगवान् ने पूछा-आयुष्यमन् श्रमणों ! जीव किससे डरते हैं !
गौतम आदि श्रमण निकट आये, बन्दना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से लोले-भगवन् ! हम नहीं जानते, इस प्रश्न का क्या तात्पर्य हैं ? देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहें। हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं।
भगवान बोले-आर्यों ! जीव दुःख से डरते हैं।
गौतम ने पूछा-भगवन् ! दुःख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ?
भगवान्-गोतम ! दुःख का कर्ता जीव और उसका कारण प्रमाद है।
गौतम-भगवन् ! दुःख का अन्त-कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ?
भगवान्-गौतम ! दुःख का अन्त-कर्ता जीव और उसका कारण अप्रमाद
उपशम
मानसिक सन्तुलन के बिना कष्ट सहन की क्षमता नहीं पाती । उसका उपाय उपशम है। व्याधियों की अपेक्षा मनुष्य को आधियां अधिक सताती हैं। हीन-भावना और उत्कर्ष-भावना की प्रतिक्रिया दैहिक कष्टों से अधिक भयंकर होती है, इसलिए भगवान् ने कहा--जो निर्मम और निरहंकार है, निम्संग है, ऋद्धि, रस और सुख के गौरव से रहित है, सब जीवों के प्रति सम है, लाभ-अलाभ सुख-दुःख, जीवन, मौत, निन्दा, प्रशंसा, मानअपमान में सम है, अकषाय, अदण्ड, निःशल्य और अभय है, हास्य, शोक ओर पौद्गलिक सुख की आशा से मुक्त है, ऐहिक और पारलौकिक बन्धन से