Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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साम्य-दर्शन
दर्शन के सत्य ध्रुव होते हैं। उनकी अपेक्षा त्रैकालिक होती है। मानवसमाज की कुछ समस्याएं बनती मिटती रहती हैं । किन्तु कुछ समस्याएं मौलिक होती हैं। बार्तमानिक समस्या का समाधान करने का उत्तरदायित्व वर्तमान के समाज दर्शन पर होता है। दर्शन उन समस्याओं का समाधान देता है, जो मौलिक होने के साथ-साथ दूसरी समस्याओं को उत्पन्न भी करती है ।
वैषम्य, शस्त्रीकरण और युद्ध - ये त्रैकालिक समस्याएं हैं । किन्तु वर्तमान में ये उम्र बन रही हैं। अणु-युग में शस्त्रीकरण और युद्ध के नाम प्रलय की सम्भावना उपस्थित कर देते हैं। आज के मनीषी इस सम्भावना के अन्त का मार्ग ढूंढ रहे हैं। मार्क्स ने साम्य का मार्ग खोज निकाला । समाज-दर्शन 1 में उसका विशिष्ट स्थान है। उसके पीछे शक्ति का सुदृढ़ तन्त्र है । इसलिए उसे साम्य का स्वतन्त्र - विकासात्मक रूप नहीं कहा जा सकता । भगवान् महावीर ने साम्य का जो स्वर-उदबुद्ध किया, वह आज अधिक मननीय है । भगवान् ने कहा--"प्रत्येक दर्शन को पहले जानकर मैं प्रश्न करता हूँ, हे वादियो ! तुम्हें सुख प्रिय है या दुःख अप्रिय ?" यदि तुम स्वीकार करते हो कि दुःख प्रिय है तो तुम्हारी तरह ही सर्व प्राणियों को, सर्व भूतों को, सर्व जीवों को और सर्व सत्वों को दुःख महा भयंकर, अनिष्ट और अशान्तिकर है' | "जैसे मुझे कोई बेंत, हड्डी, मुष्टि, कंकर, ठिकरी आदि से मारे, पीटे, तोड़े, वर्जन करे, दुःख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राण-हरण करे तो मुझे दुःख होता है, जैसे मृत्यु से लगाकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और तत्त्वों को होता है” यह सोचकर किसी भी प्राणी, भूत, जीव व सत्त्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर हुकूमत नहीं करनी चाहिए, उसे परिताप नहीं पहुंचाना चाहिए, उसे उद्विन नहीं करना चाहिए ।
इस साम्य दर्शन के पीछे शक्ति का तन्त्र नहीं है, इसलिए यह समाज को अधिक समृद्ध बना सकता है। समूचा विश्व अहिंसा या साम्य की चर्चा कर