Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
81
जैन दर्शन के मौलिक तत्व अण्डाकार । इस प्राकार को 'पृथिव्याकार' कहे वो ठीक है, क्योंकि उसका अपना निराला ही आकार है। इस प्राकार की कल्पना. इस कारण की गई है कि पृथ्वी का कोई भी अक्षांश यहाँ तक कि
विशवत् रेखा मी-पूर्ण बस नहीं है। १२५-या भूगोल है: The Sunday News of India 2nd May 1964.
(विश्व-लेखक-रामनारायण B.A. पृ०.३५) १२६-(क) सु० च.
(ख) अनेक लोगों का मत है कि पृथ्वी गोल है। इसकी पावती गोलाई में एक ओर भारत स्थित है। इसके ठीक विपरीत अमेरिका है अतः उनके विचार से अमेरीका ही पाताल लोक है।
[धर्म-वर्ष ६ अंक YE दिसम्बर ४ १९५५ १२५–'जनक' १ अक्टूबर १९३४
लेखका-भीमान् प्रोफेसर घासीरामजी M. S. C.-A.P.S. लन्दन । १२६-ज्यो. रला -भाग १ पृ. २२८-ले० देवकीनन्दन मिश्र। १२६-वृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा परमाणुओं को संयुक्त करता है, उनके __ संयोग का प्रारम्भ होने पर ही सष्टि होती है, इसलिए यह
"प्रारम्भबाद कहलाता है। १३. श्वरवादी सोल्य और योगदर्शन के अनुसार सष्टि का कारण
त्रिगुणात्मिका प्रकृति है। ईश्वर के द्वारा प्रकृति के चुन्ध किये जाने पर त्रिगुण का विकास होता है। उससे ही सष्टि होती है। अनीश्वरपादी सांख्य परिणाम को प्रकृति का स्वभाव मानते हैं। परिणामवाद के दो रूप होते 1 गुपपरिणामबाद और बसपरिणामबार । पहला सांख्यदर्शन तथा माध्याचार्य का सिद्धान्त है। सरा सिद्धान्त रामामुजाचार्य का है, वे प्रति,.जीव और ईश्वरन तीन तत्वों को • स्वीकार करते हैं फिर भी इन सबको असरूप ही मानते है-सही
अंश विशेष में प्रकृति रूप से परिपत होता है और बही जगत् बनवा है।