Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व tal १५१-(क) बौद्ध दर्शन में परिवर्तन की प्रक्रिया "प्रतीस्य समुत्पादवाद है।
यह सही पर्ष में अहेतुकवाद है। इसमें कारण से कार्य उत्पन्न नहीं होता किन्दु सन्तति प्रवाह में पदार्थ उत्पन्न होते हैं। (स) जैन दृष्टि के अनुसार दृश्य विश्व का परिवर्तन जीव और पुद्गत के संयोग से होता है। परिवर्तन स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों प्रकार का होता है। स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होता है, इसलिए दृष्टिगम्य नहीं होता। प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होता है, इसलिए कह दृष्टिगम्य होता है। यही वष्टि या दृश्य जगत् है। वह जीव और पुद्गल की सांयोगिक अवस्थाओं के बिना नहीं होता। वैभाविक पर्याय की आधारभूत शक्ति दो प्रकार की होती है-श्रोष
और समुचित । “घास में घी है"-यह औष शक्ति है। "दूध में घी है" -यह समुचित शक्ति है। औघ शक्ति कार्य की नियामक है-कारख के अनूप कार्य पैदा होगा, अन्यथा नहीं । समुचित शक्ति कार्य की उत्पादक है, कारण की समग्रता बनती है और कार्य उत्पन्न हो जाता है। गुणपर्याययोः शक्तिर्मात्रमोघोदमवादिमा।
आसन्नकार्ययोग्यत्वाच्चक्तिः समुचिता परा॥ शायमाना तृपत्वेनाज्यशक्तिरनुमानतः ।
किं च दुग्धादि मावेन मोक्ता लोकसुखप्रदा ॥ प्राक पुद्गलपरावर्ते, धर्मशक्ति ययौघजा।
अन्त्यावर्ते तथा ख्याता शक्ति समुचितांगिनाम् ॥ कार्यभेदाच्छक्ति मेदो, व्यवहारेण दृश्यते ।
युक् निश्चय नयादेकमनेकै कार्य कारणैः ।। स्वस्वजात्यादि भूयस्यो गुण पर्यायव्यक्तयः।
इम्यानु. १.२ अध्याय, ६ से १० ११२-देखो कार्यकारणवाद ।
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