Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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: चौबीस : . १-मग० ११६ २-आकारामयोऽलोकः-जैन दी० ११०
३-बद्रव्यात्मको लोकः-जैन दी. शर .. ४-किमियं मंते ! लोएत्ति पवुञ्चति ? गोयमा ! पंचत्थिकाया-वेसण अवेत्तिने लोवेत्ति पयुक्त।
-भगं० १३-४ ५-जीवा चैव अजीवाय, श्रेस लोगे वियाहिए -उत्त० ३६।२ . . ६-दुविहे आगासे पन्नत्ते- लोयागासेय, अलोयागासेय --भग० २.१० । ७ स्था• RIVE५ ८-एक राजू असंख्य योजन का होता है। ६-जैन० अक्टूबर १९३४-लेखक प्रोफेसर घासीलालजी १०-खेतो लोए सश्रते भग० २१ ११-गुणो गमण गुणे-मग० २११ १२-खेत्तत्रो लोगपमाण मेते-भग० २१ १३-अहोलोए खेतलोए, तिरियलोए खेतलोए, उनुलोए खेतलोए ।
-भग० ११३१० १४-भग० १११६ १५-चउब्बिहे लोए पन्नत्ते, तंजहा-दव्वलोए, खेत लोए, काल लोए, माव
सोए-मग० ११० १६-दबोणं अंगे-दवेतो लोगे सअन्ते......भग० २१ १७-खेती लोए सअन्ते-भग० २११ १८-एक देवता मेरु पर्वत की चूलिका पर खड़ा है-एक लाख योजन की
ऊँचाई में खड़ा है, नीचे चारों दिशाओं में चार दिक् कुमारिका हाथ में बलिपिण्ड लेकर बहिंमुखी रहकर उस बलिपिण्ड को एक साथ फेकती है। उस समय वह देवता दौड़ता है। चारों बलिपिकों