Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
४३० ]
५६ - वै०
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
१० सू० २/२/६
६० -- मानव की कहानी पृष्ठ १२२५ का संक्षेप
६१ - अयंतु विशेषः समय विशिष्टवृत्ति प्रचयः शेष द्रव्याणामूर्ध्व - प्रचयः, समयप्रव० वृ० १४१
प्रचय एव कालस्योर्ध्वप्रचयः
६२ -स्था० ४११
६३
-भग० ११।११
६४ - पल्योपम - संख्या से ऊपर का काल --- असंख्यात काल, उपमा कालएक चार कोश का लम्बा-चौड़ा और गहरा कुना है, उसमें नवजात यौगलिक शिशु के केशों को जो मनुष्य के केश के २४०१ हिस्से जितने सूक्ष्म हैं, असंख्य खंड कर खाम खाम करके भरा जाए, प्रति सौ वर्ष के अन्तर से एक-एक केश खण्ड निकालते-निकालते जितने काल में वह कुत्रा खाली हो, उतने काल को एक पल्य कहते हैं-६५ -- जीवेयं भंते! पोगली, पोग्गले ? जीवे पोग्गलीवि, पोम्गलेवि ।
-भग० ८५१०१३६१
६६
1- श्रचित्त महास्कन्ध — केवली समुद्घात के पांचवें समय में श्रात्मा से छूटे हुए जो पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त होते हैं, उनको अचित्त महास्कन्ध कहते हैं-
६७ - दुविहा पुग्गला पन्नता, तंजहा - परमाणुपुग्गला, नो परमाणु पुम्माला चेव । स्था० २
६८-१० १२६
६६ -- स्था० ४, भग० ५/७
७० - परमाणु दुबिहे पन्नते, तंजहा -- सुहुमेय ववहारियेय । -- अनु०प्रमाणद्वार ७१--प्रांताणं सुहुमपरमाणुपोम्गलाणं समुदयसमिति समागयेणं बवहारिए परमाणुपोग्गले निफ्फज्र्ज्जति 1 -- अनु० प्रमाणद्वार
७२ - भग० २५/३
७३ - परमाणु हिं अप्रदेशो गीयते - द्रव्यरूपतया सांशो भवतीति, न तु कालभावाभ्यामपि 'अप रासो दव्बट्टाए' इति वचनात् ततः कालभावाभ्य प्रदेशत्वेऽपि न कश्चिद्दोषः । -प्रशा• पद ५