Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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· जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व पूर्व मान्यता या रूदि के कारण कुछ व्यक्ति या राष्ट्र स्थिति का यथार्य मूल्य नहीं प्राकते या प्राकना नहीं चाहते- तीनदशी है।
अतीत-दर्शन के आधार पर वर्तमान (ऋजुत्र नय) की अवहेलना करना निरपेक्ष-नीति है। इसका परिणाम है असामञ्जस्य । इसके निदर्शन जनवादी चीन और उसे मान्यता न देनेवाले राष्ट्र बन सकते हैं। वस्तु का मूल्यांकन करते समय हमारा दृष्टिकोण एवम्भूत होना चाहिए। जो वर्ग वर्तमान में चीन के भू-भाग का शासक नहीं है, वह उसका सर्व-सत्ता-सम्पन्न प्रभु कैसे होगा ? थ्यांग का राष्ट्रवादी चीन और मानो का जनवादी चीन एक नहीं हैं। अवस्था मेद से नाम-भेद जो होता है, वह मूल्यांकन की महत्त्वपूर्ण दिशा (समभिरूढ़-नय) है।
डलेस ने गोत्रा को पुर्तमाल का उपनिवेश कहा और खलबली मच गई।
इस अधिकार-जागरण के युग में उपनिवेश का स्वर एवम्भूत दृष्टिकोण का परिचायक नहीं है।
अमरीकी मजदर नेता श्री बाल्टर रूथर के शब्दों में "एशिया में अमरीका की विदेश नीति शक्ति और सैनिक गठबन्धनों पर आधारित है, अवास्तविक है। अमेरिका ने एशिया की सद्भावना को बुरी तरह से खो दिया है।
गोत्रा के बारे में अमरीकी परराष्ट्र मन्त्री श्री डलेस ने जो कुछ कहा, इस से स्पष्ट है कि वे एशियाई मावना को नहीं समझते१५।।
यह असंदिग्ध सत्य है शक्ति प्रयोग निरपेक्षता की मनोवृत्ति का परिणाम है। निरपेक्षता से सद्भावना का अन्त और कटुता का विकास होता है। कटुता की परिसमाप्ति अहिंसा में निहित है। करता का भाव तीन होता है, समन्वय की बात नहीं सकती। समन्वय और अहिंसा अन्योन्याभित है। शान्ति से समन्वय और समन्वय से शान्ति होती है। सह-अस्तित्व की धारा
प्रभु-सत्ता की दृष्टि से सब स्वतन्त्र राष्ट्र समान हैं किन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से सब समान नहीं भी हैं। अमेरिका शस्त्र-बल और धन-बल दोनों से समृद्ध है। रूस सेम्ब-बल और भम-पल से समृद्ध है। चीन और भारत जन-बल से समूदाबन व्यापार विस्तार की कला से समुद्र है। कुछ राष्ट्र प्राकृतिक