Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
tara पशुओं और पौधों का बढ़ाव भीतर से होता है और निर्जीव पदार्थों का बढ़ाव यदि होता है तो बाहर से । हि० भा० खण्ड ११० ५० ३५ -- प्राणी - सजीव और अजीव दोनों प्रकार का आहार लेते हैं। किन्तु उसे लेने के बाद वह सब जीव हो जाता है। अजीव पदार्थों को जीब स्वरूप में कैसे परिवर्तित करते हैं, यह श्राज भी विज्ञान के लिए रहस्य है। वैज्ञानिकों के अनुसार वृक्ष निर्जीव पदार्थों से बना आहार लेते हैं। वह उनमें पहुँचकर सजीव कोष्ठों का रूप धारण कर लेता है। वे निर्जीव पदार्थ सजीव बन गए इसका श्रेय "क्लोरोफिल" को है । वे इस रहस्यमय पद्धति को नहीं जान सके हैं, जिसके द्वारा 'क्लोरोफिल' निर्जीव को सजीव में परिवर्तित कर देता है I जैन- दृष्टि के अनुसार निर्जीव आहार को स्वरूप में परिणित करने वाली शक्ति आहार पर्याप्त है। वह जीवन-शक्ति की आधारशिला होती है और उसी के सहकार से शरीर आदि का निर्माण होता है।
३६ -लजावती की पत्तियाँ स्पर्श करते ही मूर्छित हो जाती हैं। आप जानते हैं कि आकाश में विद्युत् का प्रहार होते ही खेतों में चरते हुए मृगों का झुण्ड भयभीत होकर तितर-बितर हो जाता है । वाटिका में विहार करते हुए बिहंगों में कोलाहल मच जाता है और खाट पर सोया हुआ अबोध बालक चौंक पड़ता है । परन्तु खेत की मेड़, वाटिका के फौव्वारे तथा बालक की खाट पर स्पष्टतया कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ऐसा क्यों होता है ? क्या कभी आपने इसकी ओर ध्यान दिया ? इन सारी घटनाओं की जड़ में एक ही रहस्य है और यह भी सजीव प्रकृति की प्रधानता है। यह जीवों की उत्तेजना शक्ति और प्रतिक्रिया है । यह गुण लज्जावती, हरिण, विहंग, बालक अथवा अन्य जीवों में उपस्थित है, परन्तु किसी में कम, किसी में अधिक । श्राघात के अतिरिक्त अन्य अनेक कारणों का भी प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है।
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- हि० ० भा०-खण्ड १ पृ० ४२
३७ - भग० २५/४
३८-- सुहुमेणं वायुकायेणं फुडं पोम्पलकायं, एयंत, वे यंत चलतं सुन्मंतं कंदस घटतं, उदीरंत, तं भावं परिणमतं सव्वं मियं जीवा - स्था० ७ १६ भग० २०१०