Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
बहुसंख्यकों के लिए अल्प संख्यकों तथा बड़ों के लिए छोटों के हितों को बलिदान करने के सिद्धान्त का औचित्य एकान्तवाद की देन है ।
सामन्तवादी युग में बड़ों के लिए छोटों के हितों का त्याग उचित माना जाता था । बहुसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यकों तथा बड़े राष्ट्रों के लिए छोटे राष्ट्रों की उपेक्षा आज भी होती है । यह अशान्ति का हेतु बनता है । सापेक्षनीति के अनुसार किसी के लिए भी किसी का अनिष्ट नहीं किया जा सकता ।
बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों को नगण्य मान उन्हें आगे आने का अवसर नहीं देते। इस निरपेक्ष नीति की प्रतिक्रिया होती है । फलस्वरूप छोटे राष्ट्रों में बड़ों के प्रति स्नेह भाव उत्पन्न हो जाता है । वे संगठित हो उन्हें गिराने की सोचते हैं। घृणा के प्रति घृणा और तिरस्कार के प्रति तिरस्कार तीव्र हो उठता है ।
विकसित एशिया के प्रति विकसित राष्ट्रों की जो निरपेक्ष नीति रही, उसकी प्रतिक्रिया फूट रही है। एशियाई राष्ट्रों में पश्चिमी राष्ट्रों के प्रति जो दुराव है, यह उसीका परिणाम है। परिवर्तन के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले राष्ट्र सम्हल गए। उन्होंने अपने लिए कुछ सद्भावना का वातावरण बना लिया ।
ब्रिटेन ने शस्त्रहीन भारत, बर्मा और लंका को समय की मांग के साथ-साथ स्वतन्त्र कर निरपेक्ष ( नास्ति सर्वत्र वीर्यवादी ) नीति को छोड़ा तो उसकी सापेक्ष नीति सफल रही ।
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फ्रान्स ने भी भारत के कुछ प्रदेश और हालैण्ड ने जावा, सुमात्रा आदि को छोड़ा, वह भी इसी कोटि का कार्य है । पुर्तगाल अब भी निरपेक्ष ( अस्ति सर्वत्र वीर्यवादी ) नीति को लिए बैठा है और गोत्रा के प्रश्न पर अड़ा बैठा है। समय-मर्यादा के अनुसार निरपेक्ष नीति का निर्वाह हो सकता है किन्तु उसके भावी परिणामों से नहीं बचा जा सकता ।
मैत्री की पृष्ठभूमि सत्य है, वह ध्रुवता और परिवर्तन दोनों के साथ जुड़ा हुआ है। परिवर्तन जितना सत्य है, उतना ही सत्य है परिवर्तन । अपरिवर्तन को नहीं जानता वह चक्षुष्मान् नहीं है, वैसे ही वह भी अचक्षुष्मान् है जो परिवर्तन को नहीं समझता ।