Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
निःशस्त्रीकरण की आधारशिला -- सब जीव समान हैं
(क) परिमाण की दृष्टि से :
जीवों के शरीर भले छोटे हों या बड़े, आत्मा सब में समान है। चींटी और हाथी दोनों की आत्मा समान हैं" |
भगवान् ने कहा- गौतम ! चार वस्तुएं समतुल्य है- श्राकाश ( लोकाकाश ), गति सहायक-तत्त्व ( धर्म ), स्थिति सहायक-तत्त्व ( अधर्म ) और एक जीव-इन चारों के अवयव बराबर है४० । तीन व्यापक हैं। जीव कर्म शरीर से बंधा हुआ रहता है, इसलिए वह व्यापक नहीं बन सकता । उसका परिमाण शरीर व्यापी होता है। शरीर मनुष्य, पशु, पक्षी - इन जातियों के अनुरूप होता है शरीर मेद के कारण प्रसरण मेद होने पर भी जीव के मौलिक परिमाण में कोई न्यूनाधिक्य नहीं होता । इसलिए परिमाण की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
(ख) ज्ञान की दृष्टि से :
[-३६३
मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति का ज्ञान सब से कम विकसित होता है। ये एकेन्द्रिय हैं। इन्हें केवल स्पर्श की अनुभूति होती है। इनकी शारीरिक दशा दयनीय होती है। इन्हें छूने मात्र से अपार कष्ट होता है । द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, श्रमनस्क पंचेन्द्रिय, समनस्क पंचेन्द्रिय — ये atar के क्रमिक विकास-शील वर्ग है। ज्ञान का विकास सब जीवों में समान नहीं होता किन्तु ज्ञान-शक्ति सब जीवों में समान होती है । प्राणी मात्र में अनन्त ज्ञान का सामर्थ्य है, इसलिए ज्ञान-सामर्थ्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
(ग) वीर्य की दृष्टि से :
कई जीब प्रचुर उत्साह और क्रियात्मक वीर्य से सम्पन्न होते हैं तो कई उनके धनी नहीं होते । शारीरिक तथा पारिपारिंबक साधनों की न्यूनाषिकता व उच्चावचता के कारण ऐसा होता है। श्रात्म-वीयं या योग्यतात्मक बीर्य में कोई न्यूनाधिक्य व उच्चावचात्व नहीं होता, इसलिए योग्यतात्मक वीर्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
(२) अदगलिकता की से