Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं 180 (१) चक्षु-सुख (२) श्रोत्र-सुख (३) माण-सुख (1) जिला मुख (५) स्पर्शन-सुख (६) मन-सुख । प्रतिकूल वेदना के छह प्रकार है
(१) चतु-दुःख (२) श्रोत्र-दुख (३) प्राण-दुःख (1) जिहा-दुःख (५) स्पर्शन दुःख (६) मन-दुःख। संज्ञा (४) चार संज्ञाएं (पूर्वानुभूत विषय की स्मृति और अनागत की चिन्ता या विषय की अभिलाषा ) है
(१) श्राहार-संज्ञा (२) भय-संशा (३) मैथुन-संज्ञा (४) परिग्रहसंज्ञा संस्कार (५) वासना-पांच इन्द्रिय और मन की धारणा के बाद की दशा है'। उपादान
महात्मा बुद्ध ने कहा-भितुओ! जिस प्रकार काठ बल्ली, तृण तथा मिट्टी मिलाकर 'आकाश' (खला) को घेर लेते हैं और उसे घर कहते हैं, इसी प्रकार हड्डी, रगें, मांस तथा चर्म मिलकर अाकाश को घेर लेते हैं और उसे 'रूप' कहते हैं।
आँख और रूप से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह चतु-विज्ञान कहलाता है । कान और शब्द से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह भोत्रविशान कहलाता है। नाक और गन्ध से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह प्राण-विज्ञान कहलाता है। काय ( स्पर्शेन्द्रिय ) और स्पृशतव्य से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह काय-विज्ञान कहलाता है। __ मन तथा धर्म (मन-इन्द्रिय के विषय ) से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह मनोविज्ञान कहलाता है।
उस विज्ञान में का जो रूप है, वह रूप-उपादान स्कन्ध के अन्तर्गत है"।
उस विज्ञान में की जो वेदना है, वह वेदना उपादान-स्कन्ध के अन्तर्गत है, उस विशान में की जो संहा है, वह संशा-उपादान-स्कन्ध के अन्तर्गत है, जो उस विज्ञान में के जो संस्कार है, वह संस्कार उपादान स्कन्ध के अन्तर्गत है।