Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जो उस विज्ञान (चित्त) में का विज्ञान ( मात्र ) है, वह विज्ञान-उपादानस्कन्ध के अन्तर्गत है 1
मित्रो ! यदि कोई कहे कि बिना रूप के, बिना वेदना के, बिना संज्ञा के, बिना संस्कार के, विज्ञान --चित्त-मन की उत्पत्ति, स्थिति, विनाश, उत्पन्न होना, वृद्धि तथा विपुलता को प्राप्त होना— हो सकता है, तो यह असम्भव है "।
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दुःखवाद भारतीय दर्शन का पहला आकर्षण है । जन्म, मृत्यु, रोग और बुढ़ापे को दुःख १४ और अज, अमर, अजर, अरुज को सुख माना गया है । विचार - बिन्दु
जन्म, मृत्यु, रोग और बुढ़ापा - ये परिणाम हैं। महात्मा बुद्ध ने इन्हीं के निर्मूलन पर बल दिया। उसमें से करुणा का स्रोत बहा ।
भगवान् महावीर ने दुःख के कारणों को भी दुःख माना और उनके उन्मूलन की दशा में ही जनता का ध्यान खींचा। उसमें से संयम और अहिंसा का स्रोत बहा ।
दुःख का कारण
भगवान् महावीर ने कहा- बलाका अण्डे से और अण्डा बलाका से पैदा होता है, वैसे ही मोह तृष्णा से और तृष्णा मोह से पैदा होती है'
प्रिय रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श और भाव राग को उभारते हैं ।
प्रिय रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श और भाव द्वेष को उभारते हैं । प्रिय विषयों में आदमी फंस जाता है । अप्रिय विषयों से दूर भागता है । प्रिय विषयों में अतृप्त आदमी परिग्रह में आसक्त बनता है। असन्तोष के दुःख से दुखी बनकर वह चोरी करता है ।
तृष्णा से पराजित व्यक्ति के माया मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःखमुक्ति नहीं पा सकता १८
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चोरी करने वाले के माया - मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःख-मुक्ति नहीं पा सकता. "