Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
हिंसा
स्थावर जीव
सजीव
संकल्पज
श्रारम्भज
सापराध
निरपराध
सापेक्ष
निरपेक्ष गृहस्थ के लिए प्रारम्भज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है।
गृहस्थ पर कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसलिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है।
गृहस्थ को घर आदि को चलाने के लिए बध, बन्ध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार बहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध त्रसजीवों की निरपेक्ष हिंसा से वचता है, यही उसका अहिंसाअणुव्रत है।
वैराग्य का उत्कर्ष होता है, वह प्रतिमा का पालन करता है। वैराग्य और बढ़ता है तब वह मुनि बनता है।
भूमिका-भेद को समझ कर चलने पर न तो सामाजिक संतुलन बिगड़ता है और न वैराग्य का क्रमिक आरोह भी लुस होता है। समिति
जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यक प्रवृत्तियां भी संयममय और संयमपूर्वक होनी चाहिए। वैसी प्रवृत्तियों को समिति कहा जाता है, वे पाँच है:
(१) र्या-- देखकर चलना।