Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्वं
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अनुसार कोरे शानवादी जो कहते हैं, किन्तु करते नहीं, वे अपने आपको केवल वाणी के द्वारा आश्वासन देते हैं" ।
"सम्यग्ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः " "यह जैनों का सर्व विदित वाक्य है । कर्म का नाश मोक्ष में होता है या मुक्त होने के आसपास । इससे पहले कर्म को रोका ही नहीं जा सकता । कर्म प्रत्येक व्यक्ति में होता है । भेद यह रहता 1 है कि कौन किस दशा में उसे लगता है और कौन किस कर्म को हेय और किसे उपादेय मानता है।
श्रमण परम्परा के दो पक्ष है-गृहस्थ और श्रमण । गृहस्थ जीवन के पक्ष दो होते हैं - लौकिक और लोकोत्तर । श्रमण जीवन का पक्ष केवल लोकोत्तर होता है । श्रमण परम्परा के श्राचार्य लौकिक कर्म को लोकोत्तर कर्म की भांति एक रूप और परिवर्तनशील नहीं मानते। इसलिए उन्होंने गृहस्थ के लिए भी केवल लोकोत्तर कर्मों का विधान किया है, श्रमणों के लिए तो ऐसा है ही ।
गृहस्थ अपने लौकिक पक्ष की उपेक्षा कर ही कैसे सकते हैं और वे ऐसा कर नहीं सकते, इसी दृष्टि से उनके लिए व्रतों का विधान किया गया, जबकि श्रमणों के लिए, महाव्रतों की व्यवस्था हुई ।
भ्रमण कुछ एक ही हो सकते हैं। समाज का बड़ा भाग गृहस्थ जीवन बिताता है। गृहस्थ के लौकिक पक्ष में-- "कौन सा कर्म उचित है और कौन सा अनुचित " - इसका निर्णय देने का अधिकार समाज-शास्त्र को है, मोक्ष शास्त्र को नहीं । मोक्ष-साधना की दृष्टि से कर्म और कर्म की परिभाषा यह है'कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को । सभी मनुष्य इन्हीं दोनों से घिरे हुए हैं" । प्रमाद कर्म है और श्रप्रमाद अकर्म -- “पमायं कम्ममाइंसु, अप्पमायं तहावरं ।
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प्रमाद को बाल वीर्य और अप्रमाद को पंडित वीर्य कहा जाता है । जितना असंयम है, वह सब बाल-वीर्य या सकर्म-वीर्य है और जितना संयम है, सब पंडित वीर्य या अकर्म-वीर्य है। जो अबुद्ध है, असम्यक दर्शी है, और
मी है, उसका पराक्रम ---प्रमाद वीर्य बन्धन कारक होता है" । और जो बुद्ध है, सम्यक दर्शी है और संयमी है उनका पराक्रम- अप्रमाद वीर्य मुक्तिकारक होता है। मोक्ष-साधना की दृष्टि से गृहस्थ और भ्रमण दोनों के