Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व सापक न भटके। ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में विचिकित्सा न हो इसलिए एकान्तवास, दृष्टि-संयम, स्वाद-विजय, मिताहार, स्पर्श-त्याग आदि आदि का विधान किया है। स्यूलिभद्र या जनक जैसे अपवादों को ध्यान में रख कर इस सामान्य विधि का तिरस्कार नहीं किया जा सकता।
श्रामिक-उदय और अनुदय की परम्परा में पलने वाला पुरुष भटक भी सकता है, किन्तु वह ब्रह्मचर्य के प्राचार और विनय का परिणाम नहीं है। ब्रह्मचारी संसर्ग से बचे, यह मान्यता भय नहीं किन्तु सुरक्षा है। संसर्ग से बचने वाले भिक्षु कामुक बने और संसर्ग करने वाले साथ-साथ रहने वाले स्त्री-पुरुष-कामुक नहीं बने-यह क्वचित् उदाहरण मात्र हो सकता है, सिद्धान्त नहीं। सिद्धान्ततः ब्रह्मचर्य के अनुकूल सामग्री पाने वाला ब्रह्मचारी हो सकता है। उसके प्रतिकूल सामग्री में नहीं। भुक्ति और मुक्ति दोनों साथ चलते हैं, यह तथ्य श्रमण-परम्परा में मान्य रहा है। पर उन दोनों की दिशाएं दो हैं और स्वरूपतः वे दो हैं, यह तथ्य कमी भी नहीं मुलाया गया। मुक्ति सामान्य जीवन का लक्ष्य हो सकता है, किन्तु वह आत्मोदयी जीवन का लक्ष्य नहीं है। मुक्ति आत्मोदय का लक्ष्य है। आत्म-लक्षी व्यक्ति मुक्ति को जीवन की दुर्बलता मान सकता है, सम्पूर्णता नहीं। समाज में भोग प्रधान माने जाते है-यह चिरकालीन अनुश्रुति है, किन्तु श्रमण-धर्म का अनुगामी वह है जो मोग से विरक्त हो जाए, आत्म-साक्षात्कार के लिए उद्यत हो जाए।
इस विचारधारा ने विलासी समाज पर अंकुश का कार्य किया। "नहीं बेरेण वेराई, सम्मंतीध कदाचन"-इस तथ्य ने भारतीय मानस को उस उत्कर्ष तक पहुँचाया, जिस तक-"जिते च लभ्यते लक्ष्मी मै ते चापि सुरांगना" का विचार पहुँच ही नहीं सका।
जैन और बौद्ध शासकों ने भारतीय समृद्धि को बहुत सफलता से बढ़ाया है। भारत का पतन विलास, आपसी फूट और स्वार्थपरता से हुना है, खाग परक संस्कृति से नहीं। कइयों ने यह दिखलाने का यन किया है कि समयपरम्परा कम-विमुख होकर भारतीय संस्कृति के विकास में बाधक रही है। इसका कारण दृष्टिकोण का भेद ही हो सकता है। कर्म की व्याख्या में मेव होना एक बात है और कर्म का निरसन खरी बावः। अनव-परम्परा