Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व अनुगामी मन्द-क्रम है । साध्य का स्वरूप निष्कर्म या सर्व-कर्म-नित्ति है। इस दृष्टि से प्रवृत्ति का संन्यास प्रवृत्ति के शोधन की अपेक्षा साध्य के अधिकनिकट है। जैन दर्शन के अनुसार जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है, यह सिद्धान्त-पक्ष है। क्रियात्मक पक्ष यह है---प्रवृत्ति के असत् अंश को छोड़ना, सत्-अंश का साधन के रूप में अवलम्बन लेना तथा क्षमता और वैराग्य के अनुरूप निवृत्ति करते जाना। श्रामण्य या संन्यास का मतलब है-असत्प्रवृत्ति के पूर्ण त्यागात्मक व्रत का ग्रहण और उसकी साधन सामग्री के अनुकूल स्थिति का स्वीकार। यह मोह-नाश का सहज परिणाम है । इसे सामाजिक दृष्टि से नहीं रोका जा सकता। कोरा ममत्व-त्याग हो-पदार्थ-त्याग न हो, यह मार्ग पहले क्षण में सरस भले लगे पर अन्ततः सरस नहीं है । पदार्थसंग्रह अपने आप में सदोष या निर्दोष कुछ भी नहीं है। वह व्यक्ति के ममत्व से जुड़कर सदोष बनता है। ममत्व टूटते ही संग्रह का संक्षेप होने लगता है
और वह संन्यास की दशा में जीवन निर्वाह का अनिवार्य साधन मात्र बन रह जाता है। इसीलिए उसे अपरिमही या अनिचय कहा जाता है। संस्कारों का शोधन करते-करते कोई व्यक्ति ऐसा हो सकता है, जो पदार्थ-संग्रहके प्रति अल्प-मोह हो, किन्तु यह सामान्य-विधि नहीं है। पदार्थ-संग्रहसे दूर र कर ही निमोह-संस्कार को विकसित किया जा सकता है, असंस्कारी दशा का लाम किया जा सकता है यह सामान्य विधि है।
पदार्थवाद या जड़वाद का युग है । जड़वादी दृष्टिकोण संन्यास को पसन्द ही नहीं करता। उसका लक्ष्य कर्म या प्रवृत्ति से आगे जाता ही नहीं। किन्तु जो श्रात्मवादी और निर्वाण-बादी है, उन्हें कोरी प्रवृत्ति की भूलभुलैया में नहीं भटक जाना चाहिए। संन्यास-जो त्याग का श्रादर्श और साध्य की साधना का विकसित रूप है, उसके निर्मूलन का भाव नहीं होना चाहिए। यह सारे अध्यात्म-मनीषियों के लिए चिन्तनीय है।
चिन्तन के आलोक में आत्मा का दर्शन नहीं हुआ, तबतक शरीर-मुख ही सब कुछ रहा। जब मनुष्य में विवेक जागा-- प्रात्मा और शरीर दो है-यह भेद-शान हुआ, तब पाला साध्य बन गया और शरीर साधन मात्र। प्रात्मज्ञान के बाद आत्मोपलब्धि का क्षेत्र खुला। श्रमानों ने कहा-दृष्टि मोह