Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
५४]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व प्रदेश और जीवकोष दो हैं
श्रात्मा असंख्य-प्रदेशी है। एक, दो, तीन प्रदेश जीव नहीं होते। परिपूर्ण असंख्य प्रदेश के समुदय का नाम जीव है। वह असंख्य जीवकोषों का पिण्ड नहीं है। वैज्ञानिक असंख्य सेल्स [ Cells ]-जीवकोषों के द्वारा प्राणी शरीर और चेतना का निर्माण होना बतलाते हैं । वे शरीर तक ही सीमित हैं। शरीर अस्थायी है-एक पौद्गलिक अवस्था है। उसका निर्माण होता है।
और वह रूपी है, इसलिए उसके अङ्गोपाङ्ग देखे जा सकते हैं। उनका विश्लेषण किया जा सकता है। आत्मा स्थायी और अभौतिक द्रव्य है । वह उत्पन्न नहीं होता। और वह अरूपी है, किसी प्रकार भी इन्द्रिय-शक्ति से देखा नहीं जाता। अतएव जीव कोषों द्वारा आत्मा की उत्पत्ति बतलाना भूल है। प्रदेश भी आत्मा के घटक नहीं हैं। वे स्वयं आत्मरूप हैं। प्रात्मा का परिमाण जानने के लिए उसमें उनका आरोप किया गया है। यदि वे वास्तविक अवयव होते तो उनमें संगठन, विघटन या न्यूनाधिक्य हुए बिना नहीं रहता। वास्तविक प्रदेश केवल पौद्गलिक स्कन्धों में मिलते हैं। अतएव उनमें संघात या भेद होता रहता है। श्रात्मा अखण्ड द्रव्य है। उसमें संघात-विधात कभी नहीं होते और न उसके एक-दो तोन आदि प्रदेश जीव कहे जाते हैं। श्रात्मा कृल्न, परिपूर्ण लोकाकाश तुल्य प्रदेश परिमाणवाली है। एक तन्तु भी पट का उपकारी होता है। उसके बिना पट पूरा नहीं बनता। परन्तु एक तन्तु पट नहीं कहा जाता। एक रूप में समुदित तन्तुओं का नाम पट है। वैसे ही जीव का एक प्रदेश जीव नहीं कहा जाता। असंख्य चेतन प्रदेशों का एक पिण्ड है, उसी का नाम जीव है। अस्तित्व सिद्धि के दो प्रकार
प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व दो प्रकार से सिद्ध होता है--साधक प्रमाण से और बाधक प्रमाण के अभाव से। जैसे साधक प्रमाण अपनी सत्ता से साध्य का अस्तित्व सिद्ध करता है, ठीक उसी प्रकार बाधक प्रमाण न मिलने से भी उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आत्मा को सिद्ध करने के लिए साधक प्रमाण अनेक मिलते हैं, किन्तु बाधक प्रमाण एक भी ऐसा नहीं मिलता, जो श्रास्मा का निषेधक हो। इससे जाना जाता है कि आत्मा एक स्वतन्त्र